पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/१००

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चतुर्थसमुल्लासः ॥ । अत्यावश्यक है । जो कोई रज वीर्य के योग से वर्णाश्रम व्यवस्था माने और गुण कमों के योग मे न माने तो उससे पूछना चाहिये कि जो कोई अपने वर्ण को छेड़े तीच, अन्त्यज अथवा कृश्चीन, मुमलमान होगया हो उसको भी ना- । झण क्यों नहीं मानते ? यहां यही कहोगे कि उमने ब्राह्मण के कर्म छोड़ दिये ' इमलिये वह ब्र ह्मण नहीं है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि जो ब्राह्मणादि उत्तम कर्म करते हैं वे ही ब्राह्मणादि और जो नाच भी उनम वर्ण के गुण कर्म म्वभाववाला होवे तो उमको भी उत्तम वर्ण में और जो उत्तम वर्णस्थ होके नीच काम करे तो उसको नीच वर्ण में गिनना अवश्य चाहिय ( प्रश्न ) ब्राह्मणोस्य मुखमामीबाहू राजन्यः कृतः। ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्या शूद्रो अजायत । यह यजुर्वेद के ३१ वें अध्याय का ११ वां मन्त्र है इस का यह अर्थ है कि ब्राह्मण ईश्वर के मुख, क्षत्रिय बाहू, वैश्य ऊरू और शूद्र पगों मे उत्पन्न हुआ है इम- लिये जैसे मुख न बाहू आदि और वाहू आदि न मुख होते हैं इसी प्रकार ब्राह्मण , न क्षत्रियादि और क्षत्रियादि न ब्राह्मण हो सकते ( उत्तर ) इस मंत्र का अर्थ जो . तुमने किया वह ठीक नहीं क्योंकि यहां पुरुष अर्थात् निराकार व्यापक परमात्मा की अनुवृत्ति है । जब वह निराकार है तो उस के मुखादि अग नहीं हो मकते, जो मुखादि अगवाला हो वह पुरुप अर्थात व्यापक नहीं और जो व्यापक नहीं वह मर्व- । शक्तिमान्, जगत् का स्रष्टा, धर्ता, प्रलयकता, जीवों के पुण्य पापो की व्यवस्था । कानेहारा, सर्वज्ञ, अजन्मा, मृत्युरहित आदि विशेषणवाला नहीं हो सकता इमलिये इसका यह अर्थ है कि जो अस्य ) पूर्ण व्यापक परमात्मा की सृष्टि में मुग्व के । सदृश सब में मुख्य उत्तम हो वह ( ब्राह्मण: ) ब्राह्मण ( वाहू ) "बाहुवै धन बाहु . . वीर्यम्" शतपथबाह्मण । बल वीर्य का नाम वाहु है वह जिसमें अधिक हो सो ( राजन्यः । क्षत्रिय । ऊरू ) कटि के अधोभाग और जानु के उपरिन्थ भाग का ऊरू नाम है जो सब पदार्थों और सब देशो मे अरू के बल में जावे आवे प्रवेश करे वह ( वैश्यः । वैश्य और । पद्भ्याम् जो पग के अर्थान नीच अद्ग के मदृश । मूर्खत्वादि गुणवाला हो वह शूद्र है। अन्यत्र शतपथ प्रामणादि में भी इस मंत्र का ऐसा ही अर्थ किया है जैसे: - यस्मादेते मुख्यास्तस्मान्मुखतो ह्यसृज्यन्त इत्यादि।