पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/८७

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६७ पहला खण्ड ] पाण्डवों का विवाह और राज्य की प्राप्ति आश्चर्यजनक घटनायें देखी थीं उनका वर्णन उस समय कृष्ण से करते। इस तरह सुख से बातें करते करते धीरे धीरे दोनों से जाने और सबंरे मधुर गाने का शब्द सुन कर दोनों एक ही साथ जागते । _ कुछ दिन इसी तरह विहार करके दानां मित्र सोने के रथ में सवार होकर द्वारका गये । वहाँ यादवों ने अर्जुन का खूब आदर-सत्कार किया । उनको प्रसन्न करने के लिए द्वारकापुरी खूब सजाई गई । वहाँ जितने उपवन और विहार करने के स्थान थे वे भी तरह तरह के अलङ्कारों से सुशोभित किये गये । सुप्रसिद्ध कुरुवंश के शिरोमणि अर्जुन को देखने के लिए राजमार्ग पर लाखों आदमी इकठे हुए; स्त्रियाँ भी खिड़कियों में आकर खड़ी हुई। अर्जुन बड़ों को नमस्कार और बराबरवालों को गले से लगा कर एक रमणीय महल में रहने लगे। र कुछ दिनों के बाद यादवों का एक बड़ा भारी उत्सव आरम्भ हुआ। उसके लिए रैवतक पर्वत से मिली हुई जगह रत्न जड़े हुए मचानों और कल्पवृक्षों से सुशोभित की गई । स्थान स्थान पर नाच, गाना, बजाना होने लगा। राजकुमार लोग उत्तमोत्तम सवारियों में इधर उधर घूमने लगे । नगरनिवासी भी-काई अच्छी अच्छी सवारियों पर, कोई मामूली रथों पर, कोई पैदल ही-सैर करने के लिए जाने लगे। धीरे धीरे सभी मद्यपान से मस्त होकर स्त्रियों के साथ उत्सव मनाने लगे। जब सब नशे में खूब चूर हो गये तब कृष्ण अर्जुन को लेकर उत्सव में गये। वे बड़े कौतुक से चारों ओर घूम रहे थे कि इतने में सखियों से घिरी हुई, सब अलङ्कारों से सुशाभित, वसुदेव की पुत्री परम सुन्दरी सुभद्रा पर अर्जुन की दृष्टि पड़ी। कृष्ण समझ गये कि मित्र का मन बहन की ओर खिंच गया है। उन्होंने हँस कर कहा : मित्र ! तुम वनवासी होकर भी स्त्री के नैनबाणों से चचल हो उठे ! अपने मन की बात हमसे जी खोल कर कहो। अर्जुन ने कहा :--हे कृष्ण ! तुम्हारी बहन बड़ी ही लावण्यमयी है । वह किसके मन को हरण नहीं कर सकती ? इसके साथ किस तरह हमारा विवाह हो सकता है, इसका तुम्हें कोई उपाय करना चाहिए। कृष्ण कुछ देर सोच कर बाल : हं अर्जुन ! क्षत्रियों के लिए ता स्वयंवर ही सबसे अच्छा कहा जाता है। किन्तु स्त्रियों के मन की बात कोई क्या जाने । बलपूर्वक कन्या-हरण की चाल भी क्षत्रियों में है। यही एक उपाय ठीक मालूम होता है। स्वयंवर के समय सुभद्रा किसको पसन्द करेगी, इसका कुछ निश्चय नहीं । इसलिए तुम इसे बलपूर्वक ग्रहण करो। अर्जुन ने कृष्ण से सलाह करके दूत-द्वारा सब हाल युधिष्ठिर को कहला भेजा। उत्तर में युधिष्ठिर ने भी वही सलाह दी जो कृष्ण ने दी थी। इसके बाद, उत्सव के समाप्त होने पर, जब सुभद्रा रैवतक पर गई तब अर्जुन ने कृष्ण की अनुमति से कवच, ढाल, दस्ताने और अस्त्र-शस्त्र धारण करके, सुन्दर रथ पर सवार हो, सुभद्रा का पीछा किया। सुभद्रा देवताओं की पूजा कर, ब्राह्मणों का आशीर्वाद लं, और महापर्वत रैवतक की प्रदक्षिणा कर, द्वारका को लौट रही थी कि इतने में प्रेम से मस्त अर्जुन ने उसको सहसा पकड़ लिया और रथ में बिठा कर बड़ी फुरती से अपनी राजधानी खाण्डवप्रस्थ की ओर चले। यादवों के सभा-रक्षक ने, एक सिपाही से सुभद्रा के हरे जाने का हाल सुन कर, सुनहली तुरही बजा कर सबको होशियार किया । तुरही का तेज शब्द सुनते ही भोज, वृष्णि और अन्धक वंश के बड़े बड़े लोग शीघ्र ही सभा में आ पहुँचे और मणियों से जड़े हुए सोने के सिंहासनों पर बैठ कर सभारक्षक से सब वृत्तान्त सुना।