पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/७६

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५६ सचित्र महाभारत [पहला खण्ड ब्राह्मण लोग अपने मजातियों के स्नेह के वश होकर कमण्डलु, हिला हिलाकर कहने लगे :तुम लोग जग भी न डरना; हम तुम्हारी सहायता करेंगे। यह देख कर अर्जुन कुछ मुमकगये और उनको धीरज देकर बोले : आप लोग एक तरफ खड़े होकर तमाशा देखिए, हम अकल ही मब काम करेंगे। महा नजस्वी कर्ण ने अर्जुन पर और मद्रनरेश शल्य ने भीम पर हमला किया। अर्जुन तेज़ बाणों की मार से कर्ण की नाक में दम करने लगे । ब्राह्मण की ऐमी बंढब शक्ति को देख कर कर्ण आश्चर्य में आ गये। उन्होंने कहा : हे ब्राह्मण ! तुम्हाग बल, हथियार चलाने में तुम्हारी योग्यता, और तुम्हारे शरीर की मज़बूती देख कर हम बड़े प्रसन्न हुए। मालूम होता है कि तुम साक्षात् धनुर्वेद हो। हमें क्रोध आने पर खुद इन्द्र या कुन्ती के पुत्र अर्जुन को छोड़ कर हमाग काई भी मामना नहीं कर सकता। अर्जुन ने उत्तर दिया : हम न तो धनुर्वेद है, न इन्द्रः किन्तु अत्रविद्या जाननवाल एक ब्राह्मण है। तुमको हराने के लिए लड़ाई के मैदान में आये हैं। इम बात के सुनते ही कर्ण ने ब्रह्म-तंज की श्रेता स्वीकार की और युद्ध से पीछा छड़ाया। इधर शल्य और भीम में घूमों और ठोकरों के द्वाग और भी बंढब लड़ाई होने लगी। अन्त में भीम ने एक ऐमी उखाड़ मारी कि शल्य ज़मीन पर चारों खान चिन गिरें। इससे ब्राह्मण लोग मारे हमी के लोट लोट गये । शल्य ने भी लज्जत होकर हार मानी। यह देख कर बाकी गजा लोग डर गये । वे आपस में बातचीत करने लगे :: ये ब्राह्मणकुमार कौन हैं ? ये किमक पुत्र हैं. और कहाँ के रहनेवाले है. यह जानना ज़रूरी है। कृष्ण ने मौका पाकर कहा : हे नरेश-गण ! ब्राह्मणकुमार ने धर्म में राजकुमारी को प्राप्त किया है। इसलिए शान्त हजिए । युद्ध की और जरूरत ही क्या है ? तब सबने लड़ाई का विचार छोड़ दिया और अपने अपने घर की राह ली। इधर कुन्ती कुम्हार के घर में बैठी हुई चिन्ता कर रही थी। वह सोचती थी कि भिक्षा के लिए गये हुए मेरे पुत्र इतनी देर हो जाने पर भी क्यों नहीं आये। सायङ्काल पाण्डव द्रौपदी का माथ लिये हुए कुम्हार के घर पहुँचे । दरवाजे पर जाकर उन्होंन प्रसन्नतापूर्वक कहा : माता ! भिक्षा में आज एक बड़ी ही सुन्दर वस्तु मिली है। कुन्ती ने घर के भीतर ही से बिना समझ-बूझ उत्तर दिया :पुत्र । जो कुछ मिला है सब लोग मिल कर उसे भोग करो। जब उसने द्रौपदी को देखा तब, यह सोच कर कि मैने कैमा बुग काम किया है, युधिष्ठिर से कहा : हे पुत्र ! मुझे यह न मा म था कि तुम क्या लाये हो। इसी लिए मेरे मुंह से यह बात निकल गई कि सब जन मिल कर उसे भोग करो। अब काई ऐसी युक्ति निकालो कि न तो मेरी बात ही मूंठ हो और न अधर्म ही हो। बुद्विमान् युधिष्ठिर ने कुछ देर सोचने के बाद अपने स्वार्थ की कुछ भी परवा न करके कहा :हे अर्जुन ! द्रौपदी को तुम्हीं ने जीता है; इसलिए तुम्हीं उसके साथ विवाह करो। अर्जुन ने भी बड़े भाई की तरह धर्म का खयाल करके कहा :