पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/७३

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५३ पहला खण्ड ] पाण्डवों का विवाह और राज्य की प्राप्ति लोग यह न जान कर कि पाण्डव कहाँ जा रहे हैं, और उनको भी अपनी ही तरह ब्राह्मण समझ कर कहने लगे : - तुम लोग हमारे साथ पाञ्चाल देश चलो । वहाँ एक महा अद्भुन उत्सव होनेवाला है। राजा द्रुपद ने यज्ञ की वेती से एक कन्या पाई थी। उसी कमलनयनी का स्वयंवर रचा जायगा । हम उसी का अनुपम रूप और उमी के स्वयंवर का ठाट-बाट देखने जाते हैं। वहाँ अनेक देशों से कितने ही बड़े बड़े योद्धा और अस्त्र-विद्या में निपुण गजे और गजकुमार आयेंगे। मङ्गल-पाठ करनेवाले सूत, पुगण जाननेवाले मागध, स्तुति करनेवाले वन्दीगण, नट, नाचनेवाले और अनेक देशों के योद्वा लोग वहाँ आकर अपने अपने करतब दिखावेंगे। यह सुन कर पाण्डव लोग ब्राह्मणों के साथ हो लिये और शीव ही पाञ्चाल नगर में जा पहुँच । देशदेशान्तर से आये हुए गजा लोग जहाँ उतरे थे व मब स्थान और नगर अच्छी तरह देख कर पाण्डव ब्राह्मणों की तरह एक कुम्हार के घर में जाकर उनरे। गजा द्रुपद ने मन में यह ठान ली थी कि मैं अपनी कन्या उमी को दूंगा जा बहुत बड़ा धनुर्धारी होगा। इस इगदे से उन्होंने एक ऐसा धनुप बनवाया था जिस पर प्रत्यचा चढ़ा कर झुकाना बड़ा कठिन काम था। उन्होंने एक आकाश-यन्त्र भी तैयार करवाया था। यद यन्त्र अधर में लटका हुआ हिला करता था। इसी यन्त्र में, बहुत उँचाई पर, एक निशाना लटकाया गया था। यह सब करकं गजा द्रपद ने मुनादी कर दी थी कि जो कोई इम धनुप को तान कर पाँच ही बागों में हिलनेवाले यन्त्र के छेद के भीतर से निशाना मार सकेगा उसी का मैं कन्यादान दूंगा। इसके लिए नगर से मिली हुई एक साफ चौग्म ज़मीन पर म्वयंवर-स्थान बनाया गया। मभा स्थल के चारों और दीवारें बनाई गई और खाइयाँ खोदी गई। फिर उसमें जगह जगह पर बड़े बड़े द्वार बनाये गये । रङ्ग-भूमि के चारो तरफ दृध के समान शुभ्र राजभवन, मणियों से जड़ी हुई उनकी छते और आँगन, बगबर बगबर जगह पर बन हुए एक ही तरह के सब दग्याजे, मनाहर मीढ़ियाँ, और विचित्र पुष्पों की मालाओं से शोभित चंदवे आदि अपूर्व शोभा को धारण किये हुए थे । गजा द्रपद के प्रण का सुन कर चारों तरफ से गजा लोग आने लगे। करण के साथ दुर्योधन आदि कुरु लोग, तथा बलदेव और कृष्ण आदि यादव लोग भी आये। अनेक स्थानों से ऋपि और ब्राह्मण लोग उत्सव देखने के लिए आये । राजा द्रपद ने सब का यथोचित सत्कार किया, और स्वयंवर का दिन आने तक, मेहमानों का मन बहलाने के लिए नाच, गाना-बजाना, तरह तरह के कला-कौशल और कसरते दिखलाने की व्यवस्था की। इस तरह पन्द्रह दिन बीत गये । स्वयंवर का शुभ दिन आ पहुँचा । रङ्गभूमि में सुगन्धित जल का छिडकाव हा । दर्शक लोगों के लिए बनाये गये मचानों पर जगह जगह पर अच्छे अच्छं आसन और दूध के समान सफ़ेद सेनें बिछाई गई । अस्त्र-विद्या में निपुण बड़े बड़े वीर, बड़े बड़े बली, नौजवान राजा लोग बड़े ही सुहावन वस्त्राभूपणों से सज कर और अस्त्र-शस्त्र धारण करकं सभा में आये, और श्रासनों की सबसे ऊपरवाली कतार में बैठ कर कुल, शील और ऐश्वय्य के घमण्ड में चूर हो डाह-भरी आँखों से एक दूसरे का मुँह देखने लगे । शुभ मुहूर्त आ गया। राजा द्रुपद के चन्द्रवंशी पुरोहित ने यथाविधि आहुति देकर अमि को तृप्त किया और ब्राह्मणों के द्वारा स्वस्तिवाचन कराया। उसके समाप्त होते ही एकदम से बाजा बजना बन्द हो गया। सभा-स्थल में सन्नाटा छा गया। स्नान किये हुए, अनुपम वस्त्राभूषणों से सजी हुई, हाथ में विचित्र काञ्चनी माला लिये हुए, अपूर्व लावण्यमयी द्रौपदी अपने भाई धृष्टद्य म्न के के साथ रङ्गभूमि में पधारी। धृष्टद्य म्न ने मीठे और गंभीर स्वर से हाथ उठा कर सबसे कहा :-- हे उपस्थित नरेशगण ! आप लोग श्रवण कीजिए । यह धनुष-बाण और निशाना है। जो इस