३३२ सचित्र महाभारत [ दूसरा खण्ड राजन् ! अब तुम्हें और अधिक परिश्रम करने की ज़रूरत नहीं; तुम हमारे साथ इस रथ पर सवार होकर चलो। दुखी धर्मराज ने उत्तर दिया :- हे सुरराज ! कोमलाङ्गी द्रौपदी और अपने प्यारे भाइयों को जमीन पर पड़ा छोड़ हम स्वर्ग जाना नहीं चाहते। इसके उत्तर में इन्द्र ने कहा :- महाराज ! द्रौपदी और तुम्हारे चारों भाई देह त्याग करके तुम्हारे पहले ही स्वर्ग पहुँच गये हैं। अतएव उनके लिए शोक न करो। तुम हमारे साथ सदेह वहाँ चलो। वे लोग वहाँ तुम्हें मिलेंगे। इन्द्र के इस तरह धीरज देने पर युधिष्ठिर ने फिर उनसे कहा :- हे देवराज ! यह कुत्ता हमारा बड़ा भक्त है; इसने कहीं हमारा साथ नहीं छोड़ा। इससे यदि हम इसे छोड़ देंगे तो बड़ी निर्दयता का काम होगा। इसलिए कृपा करके इसे भी हमारे साथ स्वर्ग चलने की अनुमति दीजिए। युधिष्ठिर के इस तरह अनुरोध करने पर इन्द्र ने उनसे कहा :-- धर्मराज ! आज सबसे बड़ी सिद्धि प्राप्त करके तुम अतुल सम्पत्ति के अधिकारी हुए हो । स्वर्ग में तुम्हें किसी प्रकार का दुख न होगा। वहाँ कोई भी पाप तुम्हें छू तक न सकेगा। इसलिए इस सामान्य कुते के लिए क्यों दुखी होते हो ? युधिष्ठिर ने कहा :-हे देवेन्द्र ! हम अपने सुख के लिए इस भक्त, शरणागत और सहायहीन कुत्ते को किसी तरह नहीं छोड़ सकते । इन्द्र ने कहा :-हे धर्मराज ! कुत्ता अत्यन्त अपवित्र जीव है। यह सब लोग जानते हैं कि यदि कुत्ता यज्ञ-क्रिया को देख ले तो यज्ञ का सारा फल नष्ट हो जाता है। इसलिए स्वर्ग में इसे कैसे स्थान मिल सकता है ? तुमने प्राण से अधिक प्यारी द्रौपदी और प्रियतम भाइयों का त्याग करके सिद्धि प्राप्त की है; अब इस कुत्ते की माया में फंस कर उस सिद्धि के परमोत्तम फल से क्यों वञ्चित होते हो ? इसके उत्तर में दृढ़संकल्प धर्मराज कहने लगे :- हे इन्द्र ! जब मृत्यु आती है तब किसी से मिलना या बिछुड़ना मनुष्य की इच्छा के अधीन नहीं रहता। अपनी पत्नी और भाइयों को जीवित रहते हमने नहीं छोड़ा। जब जीवन देने में अपने को असमर्थ समझा तभी उनका त्याग किया। मतलब यह कि इस कुत्ते को छोड़ कर हम स्वर्ग नहीं जाना चाहते। जब महात्मा युधिष्ठिर ने यह प्रतिज्ञा की तब वह कुत्ता साक्षात् धर्मरूप होकर धर्मराज से मधुर स्वर में कहने लगा :- बेटा! हम केवल तुम्हारी परीक्षा लेते थे। अब हम समझे कि तुम सच्चे समझदार, धर्मात्मा और सब प्राणियों पर दया करनेवाले हो । हम तुम्हारे धर्माचरण से बड़े प्रसन्न हुए हैं । तुम इसी देह से स्वर्ग जाकर अक्षय्य फल प्राप्त कर सकोगे। भगवान् धर्म की यह बात कह चुकने पर सब देवताओं ने वहाँ इकट्ठे होकर इन्द्र के साथ धर्मराज को दिव्य रथ पर चढ़ाया । तब अपने तेज से पहले राजर्षियों की कीर्ति को मन्द करके आकाश को प्रकाशित करते हुए वे सदेह स्वर्ग गये।
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