पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/३६२

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३३० सचित्र महाभारत [ दूसरा खण्ड इसके बाद सर्वसाधारण प्रजा को बुला कर युधिष्ठिर ने उन लोगों से अपना अभिप्राय प्रकट किया। इस पर बहुत व्याकुल होकर उन लोगों ने कहा :-- महाराज ! आप लोगों का यह कर्त्तव्य नहीं कि हम लोगों को छोड़ कर चले जायें । प्रजा ने इस तरह बार बार विनती की। परन्तु उनकी बातों से युधिष्ठिर का मन जरा भी न डिगा । अन्त में उन लोगों का यथोचित सम्मान करके युधिष्ठिर ने अपने शरीर से अत्यन्त मूल्यवान् गहने उतार डाले और संन्यासियों के योग्य वल्कल पहने । तब अन्य पाण्डवों और द्रौपदी ने भी वैसा ही वेश धारण किया। इसके बाद उस समय के उपयुक्त यज्ञ करके और जल में अग्नि फेंक कर पत्नी के साथ पाण्डव लांग गजधानी से निकले । वनवास के लिए जाने की तरह फिर उनको जान देख सब लोग जोर जोर से रोने लगे। इस समय एक कुत्ता उनके साथ हो लिया । नगर-निवासी और प्रजागरण बहुत दूर तक उनके साथ साथ गये; पर--महाराज ! लौट चलिए यह बात किसी के मुँह से न निकली । अन्त में सब लोग लौट आये और अपने अपने घर गये। सिर्फ उस कुत्ते ने पाण्डवों का साथ न छोड़ा। यशस्विनी द्रौपदी-सहित पाण्डव लोग संयम अवलम्बन करके पहले पूर्व की ओर चले। सबके आगे धर्मराज युधिष्ठिर चले, उनके पीछे महाबली भीमसेन, उनके पीछे वीरवर अर्जुन, उनके पीछे नकुल और सहदेव और सबके पीछे मनस्विनी द्रौपदी। उस कुत्तं न साथ न छोड़ा। वह भी सबके पीछे पीछे चला। इस तरह धीरे धीरे वे लोग समुद्र के किनारे पहुँचे । वहाँ अग्नि के दिये हुए जिस गाण्डीव धनुष को अर्जुन प्राण रहते कभी न छोड़ सकते थे उसे उन्होंने फिर अग्नि के हवाले किया। इसके बाद उन लोगों ने दक्षिण का रास्ता लिया और अनेक देश, नदी और समुद्रों को पार करके पृथ्वी की दक्षिणी सीमा पर पहुँच गये। वहाँ से वे फिर उत्तर की ओर लौटे। इस तरह तीन तरफ़ से भारतवर्ष की परिक्रमा करके उन लोगों ने जल में डूबी हुई द्वारका नगरी के दर्शन किये। इसके बाद हिमालय पार करने के इरादे से स्त्री-सहित पाण्डव लोग यम-नियम-पूर्वक योग- परायण होकर जल्दी जल्दी उत्तर की ओर चले । रेगिस्तान पार करने के बाद हिमालय की पर्वतमाला और उसके बीच सुमेरु की चोटी दिखाई पड़ने लगी। इस स्थान से पहाड़ी रास्ता धीरे धीरे दुर्गम होने लगा। राजपुत्री द्रौपदी बहुत थक जान के कारण योग-भ्रष्ट होकर पतियों के सामने ही जमीन पर गिर गई। यह देख कर महावीर भीमसेन ने धर्मराज युधिष्ठिर से पूछा :- आर्य ! हमारी प्रियतमा द्रौपदी ने कभी कोई अधर्म नहीं किया। फिर वे इस समय क्यों इस तरह गिर गई। इसके उत्तर में युधिष्ठिर ने कहा :- भाई ! यद्यपि द्रौपदी के सामने हम सब लोग समान थे, तथापि वे अर्जुन का अधिक पक्ष- पात करती थीं-उन पर उनकी प्रीति कुछ अधिक थी। यही उनके इस तरह गिरने का कारण है। यह कह कर द्रौपदी की ओर देखे बिना ही धर्मराज चुपचाप आगे बढ़ने लगे। कुछ देर बाद छोटे भाई संहदेव भूमि पर गिरें । तब भीमसेन ने फिर युधिष्ठिर से पूछा :-