पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/३६

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१६ सचित्र महाभारत [पहला खण्ड दुखी होकर शोक करने लगे। स्वामी के दुःख और विलाप से कुन्ती के हृदय पर बड़ी चोट लगी। वह उन्हें एकान्त में ले गई और दुर्वासा ऋषि के बतलाये हुए मंत्र की सारी कथा कह कर बोली : हे नाथ ! ब्राह्मण के मुँह से निकले हुए वचन कभी झूठ नहीं होते । इस समय इस मंत्र की सहायता लेना चाहिए। आप आज्ञा दीजिए, किस देवता को बुला कर मैं सन्तान के लिए प्रार्थना करूँ। राजर्षि पाण्डु कुन्ती की बात सुन कर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा : प्रिये ! देवताओं में धर्मराज ही सबसे अधिक पूज्य हैं । धर्मराज का दिया हुआ पुत्र जरूर ही धर्मात्मा होगा। इससे देवताओं में श्रेष्ठ धर्मगज ही का श्रादरपूर्वक स्मरण करो! स्वामी की आज्ञा के अनुसार कन्ती ने धर्मराज ही का स्मरण करके मंत्र का उच्चारण किया । धर्मराज ने कन्ती को एक पुत्र दिया। उसका नाम हुआ युधिष्ठिर। इम पुत्र को पाकर कुछ दिनों तक पाण्डु सुखपूर्वक रहे । एक दिन उन्होंने कुन्ती से कहा : प्रिये ! क्षत्रियों के कल में बल का ही अधिक प्रयोजन होता है। जो बलवान होता है उसी की प्रशंसा भी होती है। इससे महर्षि दुर्वासा के मन्त्र से वायु को बुलाकर उनमे एक महाबलवान् पुत्र प्राप्त करो। कुन्ती ने स्वामी की आज्ञा से वैसा ही किया । भगवान् वायु के प्रमाद मे कुन्ती के एक महाबली पुत्र हुआ। उसका नाम रक्खा गया भीमसेन । ___ इस तरह ये दो गुणवान पुत्र पाकर पाण्डु की पुत्रकामना और भी बढ़ गई। वे सोचने लगे कि किसी देवता के द्वारा सब बातों में श्रेष्ठ जो एक पुत्र मिले तो बहुत ही अच्छा हो । देवताओं के गजा इन्द्र का उन्हें स्मरण हुआ । इससे इन्द्र को प्रसन्न करने के लिए उन्होंने कुन्ती से कहा कि पहल तुम इन्द्र का पूजन और व्रत करो। उन्होंने खुद भी, इसी मतलब से, इन्द्र की तपस्या प्रारम्भ की । एक वर्ष में इन्द्र देव प्रसन्न हुए। तब कुन्ती ने दुर्वासा के दिये हुए मन्त्र का उच्चारण करके इन्द्र से एक पुत्र पाने की इच्छा जताई । इन्द्र की कृपा से पाण्डु के महा-प्रतापी, सब गुणों से सम्पन्न, एक पुत्र हुआ। उसका नाम रक्खा गया अर्जुन। इन्द्र के दिये हुए इस पुत्र का दर्शन करने के लिए अनेक देवता और गन्धर्व आये। और भी कितने ही शुभ लक्षण दिखाई दिये । इन कारणों से कुन्ती को बहुत आनन्द हुआ । परन्तु पाण्डु की इससे भी न हुई। उनके मन में आया कि और भी ऐसे ही पुत्र प्राप्त हों तो अच्छा । कुछ समय पीछे वे एक दिन फिर कुन्ती के पास गये और उससे कहा कि तुम और भी पुत्र पाने का यत्न करो। परन्तु बार बार देवताओं को कष्ट देना कुन्ती ने मुनासिब न समझा । इससे वह फिर उस मन्त्र का उच्चरण करने पर राज़ी न हुई। इसी समय एक दिन माद्री ने पाण्डु से एकान्त में कहा : महाराज ! मैं रानी होकर भी बड़ी ही हीन-दशा में हूँ। परन्तु इससे मुझे कोई दुःख नहीं। तुम्हारे और भाइयों के स्त्रियों के सन्तान हैं, इससे भी मुझे खेद नहीं। मैं उनसे ईर्ष्या नहीं करती। परन्तु मैं और कुन्ती आपके लिए बराबर होकर भी कुन्ती के तीन पुत्र हैं, परन्तु मुझे अब तक एक भी पुत्र का मुँह देखने का सौभाग्य नहीं हुआ। यह मेरे लिए बड़े दुख की बात है । कुन्ती मेरी सौत है; इससे मेरा जी नहीं चाहता कि मैं उससे पुत्र के लिए याचना करूँ। आप यदि कृपा करके दुर्वासा मुनि के दिये हुए मन्त्र द्वारा मेरे लिए पुत्र प्राप्त करने की आज्ञा कुन्ती को दें तो मैं अपने को कृतार्थ मानें। यह सुन कर पाण्डु ने कहा : प्रिये ! तुम्हारे पुत्र का मुंह देखने की मुझे भी बहुत दिनों से लालसा है। इस विषय में कुन्ती से कहने की भी कई बार मैंने इच्छा की। परन्तु तुम इस बात को मानोगी या नहीं, इसी सोच विचार