पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/३४७

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३१५ दूसरा खण्ड ] परिणाम साथ ही वन जायेंगे। अब आप वैसी बात फिर कह कर हमें दुखी न कीजिएगा । इस राज्य के हम नहीं, किन्तु श्राप ही राजा हैं। इसलिए इस विषय में हम आपको क्या अनुमति दें ? धृतराष्ट्र ने कहा :-- बेटा ! वनवास करना हमारे कुल में सनातन से चला आया है। इसी से तपस्या करने की हमारी इच्छा है। हम बहुत दिन तुम्हारे साथ रहे; तुमने भी हमारी बहुत सेवा की । पर अब हम वृद्ध हुए। इसलिए वन जाने की अनुमति देना तुम्हारा कर्त्तव्य है । हे युधिष्ठिर ! इससे तुम्हें भी हमारी तपस्या का फल होगा। क्योंकि राज्य में जो कुछ अच्छे या बुरे काम होते हैं राजा भी उनके पाप-पुण्य का भागी होता है। यह कह कर कांपते हुए राजा धृतराष्ट्र हाथ जोड़ कर फिर बोले :- बेटा ! बुढ़ापे के कारण इतनी देर बातें करने से हम थक गये हैं और हमाग मुँह सूख गया है । इसलिए हम महात्मा सञ्जय और महाबली कृप से निवेदन करते है कि वे हमारी तरफ़ से तुमसे अनुरोध करें। ___ यह कहते कहते वृद्व राजा धृतराष्ट्र अचानक बेहोश हो गये और गान्धारी के शरीर के आसरे उढ़क गये। यह देख कर युधिष्ठिर को बड़ा दुःख हुआ। वे विलाप करने लगे :- हाय ! जिनके हजार हाथी का बल था वे अब स्त्री के शरीर के आसरे मुर्दे की तरह पड़े हैं। यह सब कुछ हमारे ही कारण हुआ है; इसलिए हमारी बुद्धि को, हमारे शास्त्रज्ञान को, और खुद हमको धिक्कार है ! यदि राजा धृतराष्ट्र और यशस्विनी गान्धारी दोनों जन भोजन न करेंगे तो आज से हम भी उपवास करेंगे। इस तरह विलाप करते हुए युधिष्ठिर धृतराष्ट्र की छाती और मुंह पर अपने शीतल हाथ फेरने लगे। इससे अन्धगज का होश आ गया । वे कहने लगे :- हे पाण्डु-पुत्र ! तुम हमारे ऊपर बार बार हाथ फेरो; तुम्हारे कोमल करों के स्पर्श से हमारे शरीर में फिर प्राण आ गये। स्नेह के कारण युधिष्ठिर उनके सारे शरीर पर धीरे धीरे हाथ फेरने लगे। इससे धृतराष्ट्र फिर अच्छी तरह सचेत हो गये। उन्होंने युधिष्ठिर को हृदय से लगा लिया और उनका माथा तूंचा । धृतराष्ट्र की अवस्था देख कर विदुर आदि सब लोग रोने लगे; पर कोई बात मुँह से न निकली। धृतराष्ट्र फिर कहने लगे :- राजन् ! एक तो हम केवल शाम को भोजन करते हैं। फिर इस वन जाने के विषय में तुमसे कई बार अनुरोध करने के कारण हमें बड़ा परिश्रम पड़ा । इसी से हम बेहोरा हो गये थे। अब तुम हमें वन जाने की आज्ञा दो। अधिक बातें करने में हमें क्लेश होता है। तेजस्वी धृतराष्ट्र को इस तरह तेजोहीन और क्षीण देख कर युधिष्ठिर ने शोक के मारे रो दिया । फिर उन्होंने धृतराष्ट्र को हृदय से लगाया और बोले :-- हे राजन् ! जो काम आपको अच्छा लगता है उसे करने की हमारी जी से इच्छा रहती है। उसके सामने न हम राज्य को कुछ समझें, और न प्राणों को ही कुछ समझे । किन्तु, पहले आप भोजन कीजिए तब हम जानेंगे कि हम पर आपकी कृपा बनी हुई है। तब महातेजस्वी धृतराष्ट्र ने कहा :- पुत्र ! जो तुम हमसे भोजन करने के लिए कहते हो तो हम अवश्य ही भोजन करेंगे। इसी समय महात्मा व्यासदेव वहाँ आ गये। सब हाल सुन कर उन्होंने युधिष्ठिर से कहा :- जये।