३०० सचित्र महाभारत [दूसरा खण्ड अनुसार अब वे राज्य करने के लिए तैयार हैं। इसलिए आप इन्हें हस्तिनापुर जाने की अनुमति दीजिए। तब महात्मा भीष्म ने युधिष्ठिर से कहा :-- राजन् ! मंत्रियों के साथ अब तुम शीघ्र ही हस्तिनापुर लौट जाव। अपने मन में तुम्हें किसी प्रकार की ग्लानि करना उचित नहीं। बहुत दक्षिणावाले तरह तरह के यज्ञ करके तुम देवताओं को प्रसन्न करो; प्रजा का मनोरजन करो; मित्रों का यथोचित सम्मान करो। इससे तुम्हारी भलाई अवश्य होगी। सूर्य के उत्तरायण होने पर हम देहत्याग करेंगे । उस समय फिर हमारे पास आना। इस तरह महात्मा भीष्म का आज्ञा पाकर धर्मराज यधिष्ठिर सब लोगों के साथ हस्तिनापुर लौट आये । वहाँ पहले तो जिनके पति, पुत्र आदि मारे गये थे उन्हें माँगने से अधिक धन देकर शान्त किया। फिर अनेक प्रकार से अपनी प्रजा का सम्मान बढ़ाया और ब्राह्मणों को सन्तुष्ट किया। इसके बाद वे अच्छी तरह राज-काज चलाने की व्यवस्था में लग गये। कुछ दिन इसी तरह बीतने पर जब सूर्य उत्तरायण हुए तब धर्मराज ने समझा कि अब भीष्म का मृत्यु-काल आ गया । इसलिए उनके मरने पर अमि-संस्कार आदि क्रिया करने के लिए माला, तरह तरह के मूल्यवान् रन, घी, सुगन्धित चीजें रेशमी वस्त्र, चन्दन, अगर श्रादि भेज कर और भीष्म की संस्कृत अनि ले जानेवाले पुरोहित, धृतराष्ट्र, गान्धारी, कुन्ती और अपने भाइयों को आगे करके वे रथ पर नगर से चले । कृष्ण और विदुर भी उनके साथ साथ चले। भीष्म के पास जाकर उन्होंने देखा कि महर्षि लोग पहले ही की तरह उन्हें घेरे हुए बैठे हैं । भाइयों के साथ रथ से उतर कर युधिष्ठिर ने भीष्म और महर्षियों को प्रणाम किया। इसके बाद उन्होंने भीष्म से कहा :- हे पितामह ! हम युधिष्ठिर हैं; आपको नमस्कार करते हैं । आपका मृत्यु-समय निकट समझ कर अग्नि आदि सामग्री ले आये हैं । अब आज्ञा दीजिए, क्या करें। यह सुन कर महात्मा भीष्म ने आँखें खोल दी। उन्होंने देखा कि उनके सब कुटुम्बीय जन उनके चारों तरफ बैठे हैं ! तब उन्होंने युधिष्ठिर का हाथ पकड़ कर कहा :- बेटा ! तुम्हें मन्त्रियों समेत आया देख हम बड़े प्रसन्न हुए हैं । हम अट्ठावन दिन तक इन धारदार बाणों की सेज पर पड़े रहे। ये अट्ठावन दिन सौ वर्ष की तरह जान पड़े हैं। जो हो, सौभाग्य से अब पवित्र माघ महीना और शुक्ल पक्ष आ गया है। युधिष्ठिर से यह बात कह कर महात्मा भीष्म अन्धे राजा धृतराष्ट्र से कहने लगे :- महाराज ! तुम धर्म के सब तत्त्वों को जानते हो; इसलिए तुम्हें शोक न करना चाहिए । जो होनहार है वही होता है; उसे कोई मेट नहीं सकता ! धर्म के अनुसार पाण्डव लोग तुम्हारे पुत्र के तुल्य हैं। इसलिए धर्म-परायण हो कर तुम उनका प्रतिपालन करो । सीधे सादे स्वभाव के गुरु-भक्त युधिष्ठिर सदा तुम्हारी आज्ञा मानेंगे। इसके अनन्तर महात्मा भीष्म ने सब लोगों से कहा :- बेटा ! अब हम प्राण छोड़ना चाहते हैं । इसलिए तुम हमको आज्ञा दो। यह कह कर उन्होंने सबको आलिङ्गन किया और चुप हो गये। मूलाधार आदि स्थानों में चित्त को क्रम से एकाग्र करके वे समाधिस्थ हो गये। उसी दशा में उनकी सांस रुक गई और उनका प्राण उल्का की तरह ब्रह्मरन्ध्र से निकल कर आकाश को उड़ गया। इस तरह भरतकुल-श्रेष्ठ महात्मा भीष्म के प्राण-स्याग करने पर विदुर और पाण्डवों ने एकत्र
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