पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/३२६

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२९४ सचित्र महाभारत [दूसरा खण्ड यह कह कर धर्मराज चुप हो गये। युधिष्ठिर की बातों से उदास होकर पराक्रमी अर्जुन ने कहा :-- महाराज ! यह निरी मूढ़ता है कि राजकुल में जन्म लेकर पहले तो अपने बाहुबल से पृथ्वी पर एकाधिपत्य राज्य स्थापित करे, फिर सब कुछ धर्मार्थ छोड़ कर वन को चल दे । जो लोग धन के न होने से समाज में कुछ नहीं कर सकतं वही सम्पत्ति प्राप्त करने की चिन्ता छोड़ कर भिक्षावृत्ति का सहारा लेते हैं। तुम क्यों साधारण आदमियों की तरह उद्योग करने और ऐश्वर्य भोगने से उदासीनता दिखात हो ? जैसे पर्वत से नदियाँ निकलती हैं वैसे ही सञ्चित धन से अनेक धर्म-कर्म होते हैं। जैसे बादल समुद्र से उठ कर सारे संसार को पानी से परिपूर्ण कर देते हैं। वैसे ही धन भी खज़ाने से निकल कर तमाम दुनिया को फायदा पहुंचाता है। ऐसे धन की रक्षा करने या बढ़ाने में यदि विरोधी राजों को दबाने की भी आवश्यकता पड़े तो भी कोई हानि नहीं। राजों का यह काम धर्मानुसार है । इसलिए बड़े आदमियों के बताये हुए यज्ञ आदि कामों को छोड़ कर तुम किसी बुरे रास्ते पर पैर न रखना। युधिष्ठिर ने कहा:-हे अर्जुन ! यदि तुम कहो भी तो भी हम सुमार्ग न छोड़ेंगे। अब तक हम मोह में फंसे हुए थे; इसी लिए हम पर यह विपद पड़ी है। अब हमको सच्चा ज्ञान प्राप्त हुआ है। इससे वैराग्य का सहारा लेकर हम शीघ्र ही सदा के लिए सन्तोष-लाभ करेंगे। विषय-वासना के वशीभूत होकर हमने बड़े बड़े पाप किये हैं। अब वनवासी बन कर हम उनका प्रायश्चित्त करेंगे। यह तुच्छ संसार जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा, दुख और कष्टों से भरा हुआ है। जो इसे छोड़ सकता है वही यथार्थ सुखी होता है। _ भीमसेन ने कहा :-महाराज ! इस समय तुम अभागे श्रोत्रियों की सी बातें करते हो । यदि राजधर्म छोड़ कर आलस्य ही में समय बिताना था तो दुर्योधन के पक्ष के वीरों का क्यों नाश किया ? यदि कर्म करना त्याग कर वनवासी होने ही से सिद्धि प्राप्त होती तो पर्वत और पेड़ बड़े भारी सिद्ध हो जाते । यदि अपना पेट पालने ही से मोक्ष प्राप्त होता है तब तो पशु-पक्षी सभी मुक्त हैं। सच पूछो तो अपने धर्म के अनुसार काम करने ही से स्वर्ग मिलता है और किसी तरह नहीं मिलता। तब कम बोलनेवाले वीर नकुल युधिष्ठिर की तरफ़ देख कर बोले :-- ___ महाराज ! देवताओं ने भी कर्म करके देवत्व प्राप्त किया है। वेदोक्त नियम छोड़ देने से कभी मुक्ति नहीं मिल सकती । संसार में रह कर जो काम, क्रोध आदि विकारों को छोड़ दे वही सच्चा त्यागी है । जो कर्मों को छोड़ कर केवल वन को चला जाता है वह मूर्ख है। जो राजा प्रजापालन और यज्ञ आदि कर्तव्यों का पालन नहीं करता उसे महा पाप लगता है। भाइयों की इन युक्ति-पूर्ण बातों का धर्मराज ने कुछ भी उत्तर न दिया। तब परम धर्मज्ञ द्रौपदी कहने लगी:-- नाथ ! तुम्हारे भाई चातक की तरह सूखे कण्ठ से बार बार चिल्लाते हैं; पर तुम उनकी बातों पर ध्यान ही नहीं देते । द्वैत वन में जब हम लोगों को सर्दी, गर्मी और हवा से क्लेश मिलता था तब तुम क्या कहते थे सो याद है ? तुम कहते थे कि शत्रओं की लोथों से पृथ्वी भर जाने पर जब विकट-युद्धरूपी यज्ञ की दक्षिणा हमें मिलेगी तब हम लोगों के वनवास का दुःख बड़ा सुखदायक हो जायगा । तब तो हमें इस तरह धीरज दिया; अब क्यों हम लोगों का हृदय दुखाते हो ? इस समय तो तुम मूढ़ों की तरह बातें करते हो । मालूम होता है कि जेठे भाई के पागल हो जाने पर छोटे भी पागल हो जाते हैं। यदि ऐसा न