पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/३२५

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दूसरा खण्ड ] युद्ध के बाद की बातें २९३ सामग्री ले आये और बहुत सी चितायें बना कर जलती हुई आग में, प्रधानता के अनुसार आगे-पीछे, महाराज दुर्योधन आदि एक लाख राजों का अमि-संस्कार करने लगे। साम और ऋग्वेद की ध्वनि और स्त्रियों के रोने से सब दिशायें गूंज उठीं । इस तरह दोनों पक्ष के वीरों की दाह-क्रिया समाप्त हुई। तब धृतराष्ट्र को आगे करके युधिष्ठिर गंगाजी की तरफ़ चले। गंगाजी के किनारे पहुँचने पर सब लोगों ने गहने और कपड़े उतार डाले । फिर पिता, पुत्र, भाई और पति के लिए स्त्रियाँ तिलाञ्जलि देने लगी। इन वीर-पत्रियों के कारण गंगातट पर बेहद शोक छा गया । इसी समय श्राकुन्ती ने आँग्वों में आँसू भर कर पाण्डवों से कहा :- हे पुत्रगण ! महावीर अर्जुन ने जिस वीर-शिरोमणि का संहार किया है और जिसे तुम लोग राधा या सूत का पुत्र समझते थे उस सच्चे वीर और परम तेजस्वी कर्ण के लिए तिलाञ्जलि दो। वह सहजात-कवच-कुण्डलधारी महावीर तुम्हारा बड़ा भाई था। सूर्य का दिया हुआ वह मेरा ही पुत्र था। कुन्ती से यह गुप्त वृत्तान्त सुन कर पाण्डवों को महा-आश्चर्य और शोक हुश्रा । सोंप की तरह लम्बी साँस खींच कर धर्मराज ने माता से कहा :- __ माता ! जिनके बाणों के वेग को अर्जुन के सिवा कोई न सह सकता था वे किस तरह तुम्हारे पुत्र हुए ? जिनके तेज से हम सब लोग इतने सन्तप्त हुए उनको कपड़े से ढकी हुई आग की तरह तुमने कैसे छिपाये रक्खा ? हाय ! जिनके बल पर धृतराष्ट्र के पुत्रों ने हम लोगों से वैर करने का साहस किया वे हमारे ही बड़े भाई थे, इस बात को सोच कर हमारा हृदय जला जाता है। यदि यह गूढ वृत्तान्त तुम पहले ही बता देती तो यह हत्याकाण्ड न होता। वैसा होने से इस लोक और परलोक में हमारे लिए कुछ भी दुर्लभ न होता। इस तरह विलाप करते हुए धर्मराज ने कर्ण को जलाञ्जलि दी। स्त्रियाँ जोर जोर से रोने लगीं। तब युधिष्ठिर कर्ण की स्त्रियों को ले आये और उनके साथ कर्ण की अन्त्येष्टि-क्रिया समाप्त करके गंगाजी से बाहर निकले । उनको बहुत दुखी और चिन्तित देख कुन्ती ने कहा :- बेटा ! शोक छोड़ कर मेरी बात सुनो। खुद सूर्यदेव ने कर्ण से कह दिया था कि तुम उसके भाई हो। लड़ाई शुरू होने के पहले मैंन भी उसे रोकने की चेष्टा की थी। पर उसने हम लोगों की एक न मानी। न उसने दुर्योधन की तरफ़दारी छोड़ी और न तुम लोगों से वैर-भाव । इसलिए उसे दुविनीत समझ कर मैं उस बात को भुला देने के लिए लाचार हुई। धर्मराज ने कहा :-माता! यदि तुम कर्ण का जन्म-वृत्तान्त न छिपाती तो हमें यह कठिन दुःख न भोगना पड़ता। आगे से स्त्रियाँ कोई बात छिपी न रख सकें-यह शाप देकर और अपने सम्बन्धियों और मित्रों को याद करके युधिष्ठिर दुःखित हृदय से विलाप करने लगे :- ___ हाय ! राज्य के लोभ से पागल होकर हमने अपने निकट-सम्बन्धियों का भी नाश किया। अब तीनों लोकों का राज्य लेकर ही हम क्या करेंगे ? हम लोगों ने सारे शत्रों को मार कर अपना क्रोध शान्त किया; पर उससे भी सुख कहाँ ? हाय ! न मालूम कितने राजकुमारों को हमारे लिए सांसारिक सुख छोड़ कर और माता-पिता की आशा सफल न करके यह लोक छोड़ देना पड़ा। इन सब बातों को याद करके हम लोग राज्य का सुख कैसे अनुभव कर सकेंगे ? यद्यपि अपने तेज से हमने दसों दिशायें कँपा दी; तथा अब अपने ही कर्मों के दोष से हम अपने को निःसहाय पाते हैं। इस पाप के फल भोगने से हम तभी छूट सकते हैं जब सब कुछ दान करके तपस्या करने चले जायें। इसलिए हम अब तुम लोगों से विदा होकर किसी वन को चले जाना चाहते हैं।