२८२ सचित्र महाभारत [दूसरा खण्ड जमीन पर रख कर बड़े कष्ट से अपने शरीर को उन्होंने साधा और किसी तरह उठ बैठे। उठ कर दुर्योधन ने कृष्ण को इस तरह क्रोधपूर्ण आँखों से देखा मानो वे उनको जला देना चाहते थे। इस समय उन्हें बेहद कष्ट हो रहा था-पीड़ा से मानो उनके प्राण निकल रहे थे। तथापि किसी तरह उस पीड़ा को दाब कर वे बोले :- रे कंस के दास-पुत्र ! तुम्हारे ही कहने से भीम ने हमारी जंघा तोड़ कर अधर्म-युद्ध द्वारा हमें गिराया है। क्या इससे तुम्हें लज्जा नहीं आती ? इस युद्ध को धर्म-युद्र समझ कर लड़नेवाले अनगिनत राजे तुम्हारी ही शठता और दुष्टता के कारण प्रति दिन मारे गये हैं। तुम्हीं ने शिखण्डी को आगे करके अन्यायपूर्वक भीष्म पितामह का संहार कराया है । तुम्हीं ने अश्वत्थामा के मारने की झूठी खबर उड़ा कर शस्त्रहीन द्रोणाचार्य का वध कराया है । तुम्हारे ही आग्रह से हाथ कटे हुए और प्रायः बैठे हुए भूरिश्रवा का सिर काटा गया है । तुम्हारी ही दुष्ट-बुद्धि की प्रेरणा से, रथ से उतरे हुए महावीर कर्ण का अर्जुन के द्वारा असहाय अवस्था में नाश किया गया है । तुम्हारे बराबर पापी, निठुर और निर्लज क्या और भी कोई है ? उत्तर में कृष्ण ने कहा :- हे गान्धारी के पुत्र ! बाल-पन ही से कुमार्गगामी होने के कारण ही तुम अपने बन्धु-बान्धवों सहित मारे गये हो। जिन कुकर्मों के लिए तुम हमें दोषी ठहराते हो, तुम्हारा लोभ और राज्य भोग करने की इच्छा से उत्पन्न हुई तुम्हारी अनीति ही उनका एक मात्र कारण है। इस समय उसी का फल तुम भोग रहे हो। तब राजा दुर्योधन बोले :-- हे कृष्ण ! सागर-पर्य्यन्त इस इतनी बड़ी पृथ्वी पर हमने राज्य किया; अपने शत्रों के सिर के ऊपर सदा सिंहनाद किया; जो सुख सम्भोग तथा ऐश्वर्य और राजों को दुर्लभ हैं वे सब भोग किये; और, अन्त में, धर्मपरायण क्षत्रिय लोग जिस उत्तम गति की इच्छा रखते हैं उस गति को प्राप्त हुए। इस समय अपने भाइयों और बन्धु-बान्धवों सहित हम स्वर्ग चलते हैं; तुम अब इस शोकपूर्ण सूने राज्य को आनन्द से ले सकते हो। दुर्योधन के मुँह से ये वचन सुन कर पाण्डवों के चेहरे पर उदासी छा गई। उन्हें चिन्तित देख कृष्ण ने कहा :- भाइयो ! भीष्म आदि वीर युद्ध-विद्या में अत्यन्त निपुण थे। धर्म-युद्ध करने से तुम कभी उनसे न जीत सकते । हमने केवल तुम्हारे हित के लिए अनेक युक्तियों से उनका वध-साधन किया है। अपनी रक्षा के लिए छल-कपटपूर्वक युद्ध करने में कोई दोष नहीं। अतएव भीमसेन ने युद्ध का नियम जो भङ्ग किया है उस विषय में और अधिक सोच विचार करने की ज़रूरत नहीं । जिस मतलब से हम लोग यहाँ आये थे वह सिद्ध हो गया है, और इस समय सायंकाल होने में भी थोड़ी ही देरी है। इससे चलिए किसी अच्छी जगह चलें और वहाँ युद्ध की समाप्ति के आनन्द में आवश्यक मङ्गल-कार्य का अनुष्ठान करें। युधिष्ठिर बोले :-हे पाण्डवों के मित्रवर ! तुम्हारे ही प्रसाद से हमें यह राज्य प्राप्त हुआ है। इसका पाना हमारे लिए बहुत कठिन था; पर आपकी कृपा और सहायता से वह हमें मिल गया। अब हम निष्कंटक हो गये। यदि तुम अर्जुन के सारथि न होते तो कभी हमारी जीत न होती। हे जनार्दन ! तुमने हमारे कारण गदा, परिघ आदि न मालूम कितने शस्त्रों की कितनी चोटें सहीं। और, कठोर तथा कटु बातें जो तुम्हें सहनी पड़ी उनकी तो गिनती ही नहीं । आज दुर्योधन के मारे जाने से वह सब सफल हो गया।
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