पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/३१

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पहला खण्ड] पाण्डवों और धृतराष्ट्र के पुत्रों की जन्म-कथा धृतराष्ट्र अन्धे थे और विदुर दासी के पुत्र थे। इससे तीनों कुमारों के बड़े होने पर पाण्डु ही को राजसिंहासन मिला। इसके अनन्तर एक बार भीष्म ने विदुर से कहा : वत्स ! हमारा इतना बड़ा यह वंश नाश को प्राप्त होने ही पर था; पर महर्षि वेदव्यास की कृपा से बच गया। अब जिसमें फिर कभी वैसी दुर्गति न हो, और जिसमें हमारे वंश की दिन दिन उन्नति हो, इसलिए कुलीन और सुपात्र घर की योग्य कन्याओं के साथ तुम्हारा सबका विवाह कर देना हम अपना सबसे बड़ा कर्तव्य समझते हैं। इस विषय में तुम्हारी क्या सलाह है ? विदुर ने कहा, आप हमारे पिता के तुल्य हैं । हम आपको अपना गुरु मानते हैं। जो कुछ करना उचित हो, श्राप ही खुद विचार करके कीजिए । हमसे सलाह लेने की क्या ज़रूरत है ? यह सुन कर भीष्म सत्पात्र कन्याओं को ढूँढ़ने के यन में लगे। उन्होंने ब्राह्मणों के मुँह से सुना कि गान्धार देश के राजा सुबल के एक कन्या है। उसका नाम गान्धारी है। वह महा सुन्दरी है; नवयौवन प्राप्त हुए उसे कुछ ही दिन हुए हैं; वह बड़ी सुलक्षणा है । उन्होंने इसी कन्या के साथ धृतराष्ट्र का विवाह करना विचारा और राजा सुबल के पास अपना दूत भेजा। धृतराष्ट्र अन्धे थे। इस कारण गान्धारराज सुबल ने पहले तो कुछ भागा पीछा किया। परन्तु अन्त में प्रसिद्ध कुरुकुल से सम्बन्ध करने और सदाचरणशील दामाद पाने के लालच से धृतराष्ट्र को अपनी कन्या गान्धारी देना स्वीकार कर लिया। गान्धारी ने जब सुना कि मेरा विवाह एक अन्धे राजकुमार के साथ होनेवाला है तब उसने मन ही मन यह प्रण किया कि मैं कभी अपने पति से अधिक अच्छी दशा में न रहूँगी। उसी क्षण से उस सती ने अपनी दोनों आँखों पर पट्टी बाँध ली। अर्थात् वह भी धृतराष्ट्र ही की तरह अन्धी बन गई । इम पट्टी को उसने फिर कभी नहीं खोला। मरने तक वह वैसी ही बँधी रही। गान्धार देश के राजा के पुत्र का नाम शकुनि था। पिता की आज्ञा से वह अपनी बहन को लेकर कौरवों के यहाँ हस्तिनापुर आया। वहाँ भीष्म की आज्ञा से उसने गान्धारी का हाथ विधिपूर्वक धृतराष्ट्र के हाथ में दिया । गान्धारी का विवाह धृतराष्ट्र से हो गया। सुशीला गान्धारी अपनी अच्छी चाल-ढाल और अच्छे व्यवहार से कौरवों को प्रतिदिन अधिक अधिक प्रसन्न और सन्तुष्ट करने लगी। वह अपने गुरुजनों की सेवा में कुछ भी कसर न करती थी। वह सबसे प्रीतिभाव रखती थी। कभी किसी से द्वेष उसने नहीं किया; कभी किसी को उसने अप्रसन्न या असन्तुष्ट नहीं किया। उसके कुछ समय पीछे शूर नामक यदुवंशी राजा की कन्या पृथा का स्वयंवर होने को हुआ। पृथा भी बहुत सुन्दरी और सुशीला थी। यह समाचार भी भीष्म को मिला। राजा शूरसेन के एक मित्र थे। उनका नाम भोजराजकुन्ति था। वे शूरसेन की बुआ (पिता की बहन) के पुत्र थे । उनके कोई सन्तान न थी। इससे शूरसेन ने प्रतिज्ञा की थी कि हम अपनी पहली सन्तान तुम्हें देंगे। इस प्रतिज्ञा के अनुसार शूरसेन ने अपनी जेठी कन्या पृथा को कुन्तिभोज के घर भेज दिया। वहाँ वह चन्द्रमा की किरण के समान दिन दिन बढ़ने लगी। कुन्तिभोज के यहाँ उसका पालन होने के कारण उसका नाम कुन्ती पड़ गया। __ एक बार महा तेजस्वी दुर्वासा ऋषि भोजराज के यहाँ आये। पाहुनचार करने में कुन्ती बड़ी प्रवीणा थी। उसने सेवा, शुश्रुषा और भक्तिभाव से दुर्वासा ऋषि को बहुत प्रसन्न किया। इससे महर्षि दुर्वासा बड़े सन्तुष्ट हुए। उन्होंने कुन्ती को एक महामन्त्र दिया और बोले : पुत्री मैं तुम्हारी सेवा से बहुत प्रसन्न हुआ। जो मन्त्र मैंने तुम्हें दिया है यह उसी का फल