दूसरा खण्ड ] अन्त का युद्ध तरफ़ और काम्बोज लोगों को अपना रक्षक बना कर अश्वत्थामा पीछे की ओर लड़ने के लिए तैयार हुए। पाण्डवों पर आक्रमण करने के लिए सवारों का दल लेकर शकुनि और उलूक सबसे आगे बढ़े। ____ इसके अनन्तर, मद्रराज शल्य अच्छे सजे हुए रथ पर सवार होकर, अपने प्रचण्ड धन्वा की लगातार टङ्कार करते हुए शत्रुओं का नाश करने के लिए बड़े वेग से दौड़े। यह देख दुर्योधन के निराश मन में फिर आशा का उदय हुआ। इधर पाण्डवों ने भी कौरवों के व्यूह के जवाब में एक विकट व्यूह बनाया और कौरवों के आक्रमण को रोकने लगे। धृष्टद्यन्न, शिखण्डी और सात्यकि शल्य की सेना क साथ युद्ध करने चले :-कृतवर्मा के द्वारा रक्षा किये गये संसप्तक लोगों से लड़ने के लिए अर्जुन रवाना हुए; सोमक लोगों को साथ लेकर भीमसेन ने कृपाचार्य की सेना से भिड़ने के लिए भेरी बजाई, नकुल और सहदेव अपनी अपनी सेना-समेत शकुनि और उलूक से लड़ने दौड़े। कुछ देर में शल्य का बल-विक्रम असह्य हो गया। उनकी भीषण मार से पाण्डवों की सेना में हाहाकार होने लगा। शल्य अकेले ही पाण्डवों की मानी सारी सेना के साथ युद्ध करने लगे। उन्होंने अपने शरों से युधिष्ठिर के होश उड़ा दिये-उनको उन्होंने बे-तरह व्याकुल कर दिया। इस पर महारथी धर्मराज क्रोध से लाल हो उठे। उन्होंने प्रण किया कि या तो आज हमीं मारे जायेंगे या शल्य ही को मार कर युद्ध से निवृत्त होंगे। यह निश्चय करके उन्होंने कृष्ण और अपने भाइयों से इस प्रकार पुरुषार्थ भरे हुए वचन कहे :-- हे कृष्ण ! हे भाइयो ! भीष्म, द्रोण, कर्ण आदि जिन सब वीरों ने दुर्योधन की तरफ़ होकर युद्ध के मैदान में पराक्रम दिखाया उन सबको तुम लोगों ने अपने अपने हिस्से के अनुसार मार गिराया । शल्य जो अब तक बच रहे हैं उन्हें, इस समय, हम अपना हिस्सा समझते हैं। इससे हमीं उन्हें मारेंगे। नकुल और सहदेव हमारे चक्र की रक्षा करें; सात्यकि और धृष्टद्युम्न हमारे दाहिने और बायें भाग की। धनञ्जय हमारे पीछे रहें और भीमसेन आगे। हम सच कहते हैं, चाहे हार हो चाहे जीत, आज हम क्षत्रियों के धर्म के अनुसार ज़रूर ही मामा शल्य के साथ युद्ध करेंगे। इस प्रकार की प्रतिज्ञा करके धर्मराज युधिष्ठिर शल्य के पास पहुँचे। तब मद्रराज शल्य ने युधिष्ठिर पर ऐसी बाण-वर्षा प्रारम्भ कर दी जैसी कि आकाश से जल-वृष्टि होती है। उस समय कोई भी उन्हें नीचा न दिखा सका। पाण्डवों के पक्षवालों का एक भी बाण उनके शरीर को न छू गया। पर, कुछ देर में, युधिष्ठिर ने भी अस्त्र-शस्त्रों की झड़ी लगा दी। तब युद्ध ने बड़ा ही भयङ्कर रूप धारण किया। सिंह के समान दोनों वीर एक दूसरे को मारने का मौका ढूँढ़ने लगे। दोनों के कितने ही घाव लगे। शल्य ने एक ऐसा तेज़ बाण मारा कि युधिष्ठिर का धनुष कट कर गिर गया । तब युधिष्ठिर को बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने दूसरा धनुष लेकर कई बाण उस पर जोड़े और शल्य के सारथि और घोड़ों को मार कर पृथ्वी पर पटक दिया। इस पर अश्वत्थामा ने शल्य को अपने रथ पर चढ़ा लिया। उन्हें लेकर वे वहाँ से दूसरी जगह चले गये। किन्तु युधिष्ठिर का सिंहनाद और उनके साथी पाण्डवों की आनन्द-ध्वनि शल्य से न सही गई। दूसरे रथ पर सवार होकर वे शीघ्र ही लौट आये और युधिष्ठिर के सामने आकर उपस्थित हुए । उस समय पाण्डव, पाञ्चाल और सोमक लोगों ने उन्हें चारों तरफ से घेर लिया। यह देख दुर्योधन भी कौरवों को लेकर उनकी रक्षा के लिए चले। इतने में मद्रराज शल्य ने युधिष्ठिर की छाती में अचानक एक बाण मारा। इससे युधिष्ठिर बे-तरह उत्तेजित हो उठे और तमतमा कर ऐसे वेग से शल्य पर एक शर चलाया कि उसकी चोट से शल्य प्राय: मूर्छित होकर रथ पर गिर पड़े। इस पर युधिष्ठिर को परमानन्द हुआ।
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