२७० सचित्र महाभारत [दूसरा खण्ड हमारा भी जी नहीं चाहता। जिस पुरुष के साथ जुआ खेल कर हमने उसका राज्य ही नहीं छीन लिया, किन्तु उसे न मालूम कितने कष्ट भी दिये, वह क्या हमारे सन्धि के सँदेशे पर कभी ध्यान दे सकता है ? अभिमन्यु के मारे जाने से अर्जुन भी महा शोकाकुल हो रहे हैं। अतएव वे भी क्या कभी हमारी हित-चिन्तना कर सकेंगे ? भीमसेन का स्वभाव तो आप जानते ही हैं कितना उग्र है । इसके सिवा उन्होंने महाघोर प्रतिज्ञा की है। वे मर जायँगे, पर हमें क्षमा न करेंगे। फिर, पाण्डवों के साथ सन्धि होने की आप कैसे आशा करते हैं ? सन्धि करने पर वे कभी राजी न होंगे। एक और बात का भी विचार कीजिए । अपने ही बुद्धि-बल से प्राप्त करके जिस राज्य को हमने इतने दिन तक भोग किया उसी को हम दूसरे के अनुग्रह से कैसे ले सकते हैं ? आज तक हम राजा लोगों के ऊपर सूर्य की तरह तपते रहे। अब युधिष्ठिर के दास बन कर कैसे रह सकेंगे ? इसकी अपेक्षा युद्ध में प्राण देकर स्वर्ग जाना हम सौगुना अधिक अच्छा समझते हैं। हमारे ही कारण हमारे पक्ष के सारे राजों की हार हुई है । अतएव, धर्म के अनुसार युद्ध करके स्वर्ग जाने ही को इस समय हम अपना कर्त्तव्य समझते हैं। ___दुर्योधन के मुँह से यह बात सुन कर सारे क्षत्रिय 'वाह ! वाह !' कह कर उनकी प्रशंसा करने लगे। फिर वे सब लोग एकत्र होकर दुर्योधन से बोले :--- महाराज ! आप किसी को सेनापति बना कर शत्रओं के साथ युद्ध कीजिए। तब दुर्योधन ने अश्वत्थामा का नाम लेकर उनसे कहा :-- हे गुरुपुत्र ! अब किसे सेनापति बनाना चाहिए, इस विषय में आप ही उपदेश दीजिए। इस समय हमें एक-मात्र आप ही का भरोसा है । उत्तर में अश्वत्थामा ने कहा :- महाराज ! मद्र-नरेश में बल, वीर्य और यश आदि सभी गुण वास करते हैं । वे आपके इतने कृतज्ञ हैं कि अपने भानजे युधिष्ठिर को छोड़ कर आपकी तरफ से युद्ध कर रहे हैं । अतएव, उन्हीं को सेनापति बनाने से हम लोग जीत जाने की आशा कर सकते हैं। ___अश्वत्थामा की सलाह दुर्योधन को बहुत पसन्द आई। वे तुरन्त ही शल्य के पास गये और हाथ जोड़ कर कहने लगे :- हे मद्रराज ! आप हमारे बहुत बड़े मित्र हैं । शत्र और मित्र की परीक्षा विपद-काल ही में होती है। आज वही समय उपस्थित हुआ है। यदि आप हमें अपना कृपापात्र समझते हैं-यदि हम पर आपका कुछ भी स्नेह है--तो इस समय आप हमारे सेनापति हूजिए । इन्द्र ने दानवों का जैसे नाश किया था वैसे ही आप भी पाण्डवों और पाञ्चाल लोगों का नाश कीजिए। शल्य बोले :-- हे कुरुराज ! आपकी आज्ञा हमें स्वीकार है। हमने सेनापति होना मंजूर किया। पाण्डवों की तो कोई बात नहीं, यदि देवता भी युद्ध के लिए तैयार हों, तो हम उनके भी साथ युद्ध करने में जरा भी आगा पीछा न करेंगे। मद्रराज के मुँह से ऐसे उत्साह-पूर्ण वचन सुन कर दुर्योधन बहुत प्रसन्न हुए और उनको शास्त्र की रीति से सेनापति के पद पर नियत किया। इसके अनन्तर सब लोगों ने मिल कर यह नियम किया कि कोई मनुष्य पाण्डवों के साथ अकेले युद्ध न करे; किन्तु सब लोग मिल कर परस्पर एक दूसरे के बचाव का यत्न करके युद्ध करें। प्रात:काल हुआ। प्रबल प्रतापी मद्रराज ने सर्वतोभद्र नाम के व्यूह की रचना की और मद्रदेश के वीरों को साथ लेकर खुद ही उसके मुँह पर आ विराजे । कौरव-लोगों से घिरे हुए महाराज दुर्योधन व्यूह के बीच में, संसप्तक लोगों को लेकर कृतवर्मा बाई तरफ, यवन-सेना के साथ कृपाचार्य दाहिनी
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