दूसरा खण्ड] अन्त का युद्ध २६१ हे कर्ण ! यह देखो, विकट से विकट काम करनेवाले, क्रोध से जलते हुए, भीमसन, कौरवों का बहुत दिनों का वैर याद करते हुए, युद्ध के मैदान में सुमेरु पर्वत की तरह किस वीर-वेश में विराज रहे हैं। यह कह कर शल्य, कर्ण का रथ शीघ्र ही उस जगह ले गये जहाँ भीमसेन कौरवों की सेना का संहार कर रहे थे। वृकोदर और कर्ण दोनों परस्पर एक दूसरे के सामने हुए । कणे को देखते ही भीम के तलवों की क्रोधाग्नि मस्तक तक जा पहुँची। उन्होंने एक बड़ा ही पैना बाण छोड़ कर कणे के शरीर को वेध दिया । कर्ण कुछ कम न थे । उन्होंने भी एक फुफकारता हुआ शर ऐसा मारा कि वह भीम के ठीक हृदय पर लगा । भीम के शरीर से रुधिर की धारा बह निकली। भीम बड़े ही उग्र योद्धा थे । क्रोध से उनकी आँखौं जलने सी लगी। उसी घायल अवस्था में उन्होंने सूत-पुत्र के संहार के लिए अपने धनुष को कान तक खींचा और एक ऐसा बाण उन पर छोड़ा जो मनुष्य का तो क्या पर्वत को भी फाड़ने की शक्ति रखता था । वह महा-विषम बाण कर्ण का पूरा पूरा लगा। उससे बचने की हजार कोशिश करके भी वे बच न सके। उसकी चोट से वे बेहोश हो गये और रथ पर काठ की तरह बैठे रह गये। मद्रराज शल्य उन्हें अचेत देख युद्ध-भूमि से भगा लाये । इस प्रकार कर्ण को परास्त करके समर-भूमि में भीमसेन इधर उधर घूम घूम कर कौरवों की सेना की दुर्दशा और धृतराष्ट्र की सन्तान का संहार करने लगे। कुछ देर बाद कर्ण की मूर्छा जगी। वे फिर युद्ध के मैदान में आकर उपस्थित हुए। उन्होंने देखा कि नकुल और सहदेव की रक्षा में धर्मराज युधिष्ठिर सामने ही युद्र कर रहे हैं। अतएव दुर्योधन की हित-कामना से उन्होंने युधिष्ठिर पर आक्रमण किया और एक के बाद एक ऐसे तीन बाण छोड़ कर उनके शरीर को छेद दिया । युधिष्ठिर ने भी अपने बाणों से कर्ण के घोड़ों और सारथि को बेहद पीड़ा पहुँचाई। यह देख महाप्रतापी कर्ण को अपार क्रोध हुआ । उन्होंने एक शस्त्र से तो युधिष्ठिर और नकुल के घोड़ों को मार गिराया और दूसरे से युधिष्ठिर का शिरस्त्राण जमीन पर गिरा कर नकुल के धनुष की डोरी काट दी। इस पर मद्रराज शल्य को दया आई । युधिष्ठिर की यह गति देख कर्ण को रोकने के इरादे से वे कहने लगे :- हे कर्ण! आज तुम्हें अर्जुन के साथ युद्ध करना है । क्या यह तुम्हें याद नहीं ? तो फिर क्यों पागल से होकर दोपहर होने के पहले ही अपना सारा बल खर्च किये देते हो ? युधिष्ठिर के साथ युद्ध करने के बाद बचे हुए थोड़े से शस्त्र, टूटा फूटा कवच और थके हुए घोड़े लेकर अर्जुन के सामने जाने से तुम्हारी जरूर हँसी होगी। परन्तु, कर्ण ने शल्य की बात की कुछ भी परवा न की। उन्होंने बड़े ही तेज बाणों से तीनों पाण्डवों को घायल करके युधिष्ठिर को युद्ध के मैदान से विमुख होने के लिए विवश किया । शल्य ने जब देखा कि युधिष्ठिर की दुर्दशा करने पर कर्ण जी जान से उतारू हैं तब उन्होंने एक और युक्ति निकाली। वे बोले :- हे कर्ण ! यह देखो भीमसेन, कुरुराज दुर्योधन के साथ युद्ध कर रहे हैं । अतएव तुम्हें कोई ऐसा उपाय करना चाहिए जिसमें हम लोगों के सामने ही आज भीम उनका विनाश न करें। कर्ण अपने मित्र दुर्योधन का बड़ा प्यार करते थे। उन पर विपद आई देख उन्होंने युधिष्ठिर को तो छोड़ दिया, भीमसेन के ऊपर दौड़े। तब घायल युधिष्ठिर मन ही मन अत्यन्त लज्जित होकर नकुल को लेकर सहदेव के रथ पर सवार हुए और रण-भूमि छोड़ कर डेरों में चले आये। वहाँ रथ से उतर कर उन्होंने शय्या की शरण ली। अच्छे वैद्यों ने आकर उनके घावों की मरहम-पट्टी की । परन्तु घाव ऐसे गहरे थे कि उनसे उन्हें बड़ा कष्ट मिला । नकुल और सहदेव को भीम की सहायता के लिए रण-भूमि में भेज कर युधिष्ठिर प्रायः अचेत अवस्था में चारपाई पर पड़ रहे ।
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