पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/२६३

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दूसरा खण्ड] युद्ध जारी २३१ न हटे। उन्होंने न मालूम कितने बाण कर्ण के शरीर में छेद दिये, और जो रथी या महारथी उनके सामने आया उसे उन्होंने बे-तरह घायल किया। बड़ी फुरती से वे कौरवों की सेना का संहार करने लगे। कौरवों की तरफ़वालों में से कोई भी अभिमन्यु की चपेट से अपनी सेना को न बचा सका। अभिमन्यु के छोड़े हुए महा विषम बाण रथों को तोड़ने और घोड़ों तथा हाथियों को काटने लगे। हथियार लिये हुए बाजूबन्द बाँधे हुए, अंगूठियाँ आदि सोने के आभूषण पहने हुए वीरों के कटे हुए हाथ और माला तथा कुण्डल धारण किये हुए उनके मस्तक ज़मीन पर धड़ाधड़ गिरने लगे। उधर धृष्टद्युम्न, विराट, द्रुपद, आदि महारथियों से रक्षा किये जाने पर भी जितने बार पाण्डवों ने अभिमन्यु को बचाने के इरादे से उस चक्रव्यूह के भीतर घुसने की चेष्टा की उतने ही बार अकेले सिन्धुराज जयद्रथ ने, अभिमन्यु के तोड़े हुए व्यूह के द्वार को बन्द करके, उन्हें भीतर जाने से रोका यह देख कर सैनिकों को बड़ा आश्चर्य हुआ । इतने में टूटे हुए व्यूह को फिर मजबूत बना लेने के लिए कौरवों को काफी वक्त मिल गया। उन्होंने उस व्यूह को फिर जैसे का तैसा बना दिया। इससे , उसके भीतर घुसने की पाण्डवों की सारी आशा धूल में मिल गई। अतएव, अन्त तक, बिना किसी और की सहायता के, अकेले अर्जुनसुत अभिमन्यु ने, समुद्र के बीच में तैरते हुए मगर की तरह, उस उतनी बड़ी कौरव-सेना को पीड़ित किया। धीरे धीरे अभिमन्यु की मार ने बड़ा ही भयङ्कर रूप धारण किया । कर्ण आदि वीरों का बार बार निवारण करके उन्हें पास तक न फटकने देकर-जब अभिमन्यु ने दुर्योधन के पुत्र लक्ष्मण और मद्रराज के पुत्र रुक्मारथ आदि बहुत से राजकुमारों और कोशल-देश के राजा महारथ बृहद्बल को मार गिराया तब कौरव लोग बे-तरह घबरा कर दोणाचार्य की शरण में गये । ____कर्ण बोले :-हे ब्रह्मन् ! यदि आप बहुत जल्द कोई उपाय न करेंगे तो अर्जुन का पुत्र हममें से किसी को न छोड़गा-एक एक का संहार कर डालेगा। प्राचार्य अपने प्यारे शिष्य अर्जुन के पुत्र का युद्ध-पराक्रम प्रसन्नतापूर्वक देखते रहे । उन्होंने कहा :- हे वीरो ! अभिमन्यु को इस समय तक क्या तुमने कभी एक दफे भी सुस्ताते देखा है ? अर्जुन के पुत्र के हाथ की सफाई और बाण चलाने की फुरती तो देखो। कौरवों के महारथी वीर क्रोध से पागल होकर भी यद्यपि अभिमन्यु पर चोट करने के लिए बार बार कोशिश करते हैं, तथापि, अब तक, अभिमन्यु को जरा भी नहीं घायल कर सके। अपने शिष्यपुत्र की इस रण-चातुरी से हम बहुत ही प्रसन्न हुए हैं। उसके शर-समूह से पीड़ित होकर भी हमें सन्तोष ही होता है। ___ कर्ण ने कहा :-हे प्राचार्या ! युद्ध का मैदान छोड़ कर भाग निकलना बड़ी लज्जा की बात है। यही सोच कर हम अब तक यहाँ हैं; नहीं तो न मालूम कब हमने पीठ फेर दी होती । इस महा- तेजस्वी अर्जुन-कुमार के दारुण बाणों की पीड़ा से हमारा शरीर जल सा रहा है । तब महावीर द्रोणाचार्य हँस कर बोले :-- हे कर्ण ! अभिमन्यु जो यह कवच पहने हुए है वह अभेद्य है-न वह टूट सकता है, न फूट सकता है, न कट सकता है। उसके बाँधने की युक्ति हमने अभिमन्यु के पिता को बतलाई थी। इससे तुम लोग जो अभिमन्यु पर बाण बरसाते हो वे सब व्यर्थ हैं। यदि उसे जीतने की इच्छा हो तो रथ पर सवार होकर युद्ध करना बन्द करो। तुम सब लोग मिल कर पहले अभिमन्यु के हाथ से हथियार छीन लो फिर उसे रथ से उतार दो। तब उसके साथ युद्ध करो। अभिमन्यु के हाथ में हथियार रहते उसे परास्त करना तुम लोगों की शक्ति के बाहर की बात है। द्रोण की बात सुनते ही सब लोग इकट्ठे होकर एक ही साथ अभिमन्यु पर टूटे। किसी ने