२३० सचित्र महाभारत [दूसरा खण्ड इसके अनन्तर दुर्योधन ही ने अभिमन्यु पर पहले श्राघात किया। किन्तु प्रबल वीर अभिमन्यु का प्रचण्ड प्रताप दुर्योधन से न सहा गया। अभिमन्यु ने शीघ्र ही उनकी नाकों दम कर दिया। तब द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा, कृप, कर्ण, शल्य और कृतवर्मा ने मिल कर दुर्योधन को अभिमन्यु के पंजे से छुड़ाया। शिकार का इस तरह जाल से निकल जाना अभिमन्यु से न सहा गया। मारे क्रोध के वे अधीर हो उठे और अपने तेज़ बाणों से सबके सारथियों और घोड़ों को व्याकुल करके उन महारथियों को उन्होंने वहाँ से शीघ्र ही मार भगाया। उन्हें इस तरह युद्ध के मैदान से पराङ्मुख देख अभिमन्यु ने बड़े जोर से सिंहनाद किया। . कुछ देर बाद अभिमन्यु को कुछ दूर पर शल्य दिखाई दिये। अभिमन्यु ने उन्हें अपने विषम बाणों से इतना घायल किया कि शल्य को मर्ज़ा आ गई। यह देख कर शल्य की सेना इस तरह भागी जैसे सिंह से पीछा किया गया हिरन भागता है । शल्य का छोटा भाई उस समय वहीं था । उसने बड़े भाई को मूर्छित देख अभिमन्यु पर आक्रमण किया । अभिमन्यु का युद्ध-कौशल यहाँ तक बढ़ा चढ़ा था कि उन्होंने शल्य के छोटे भाई, उनके सारथि और उनके दोनों चक्र-रक्षकों को एक ही दफे में मार गिराया। __तब सैकड़ों योद्धा-कोई घोड़े पर सवार होकर, कोई रथ पर सवार होकर, कोई हाथी पर सवार होकर-एक ही साथ अभिमन्यु पर दौड़े । परन्तु, अभिमन्यु इससे ज़रा भी न डरे । उनमें से जो उनके सामने आया उसे उन्होंने हँसते हँसते भूमि पर सदा के लिए सुला दिया। इसके अनन्तर अर्जुननन्दन अभिमन्यु ने युद्ध के मैदान में चारों ओर चक्कर लगा कर द्रोण, कर्ण, शल्य आदि सेनाध्यक्षों को अपने पैने बाण से बेधना शुरू किया। उस समय अस्त्र-शस्त्र चलाने में अभिमन्यु ने बड़ी बेढब फुरती दिखाई। मालूम होने लगा कि एक ही समय में वे चारों तरफ युद्ध कर रहे हैं । तब क्रुद्ध होकर दुर्योधन कहने लगे :-- हे भूपाल-वृन्द ! देखिए, अपने शिष्य अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु को प्राचार्य स्नेह के कारण नहीं मारना चाहते । यदि वे इसे मारने पर उतारू होते तो यह बालक कभी न जीता बचता । अर्जुन के पुत्र की द्रोणाचार्य रक्षा करते हैं। इसी से यह अपने को बड़ा वीर समझता है । इस मूढ़ का शीघ्र ही संहार कीजिए । वीरता-विषयक इसका झूठा अभिमान दूर कर देना चाहिए । ___ इस पर घमण्ड में चूर होकर दुःशासन ने कहा :- जिस तरह राहु सूर्य का ग्राम करता है उसी तरह सबके सामने हम अभिमन्यु का संहार करेंगे। यह कह कर दुःशासन ने अभिमन्यु को जोर से ललकारा और बड़े क्रोध में आकर उन पर बाण बरसाना श्रारम्भ किया। अभिम यु और दुःशासन दोनों ही रथ-युद्ध में निपुण थे। अतएव दोनों में बड़ा ही भीषण युद्र होने लगा। कभी दाहिनी कभी बाई तरफ़ होकर, इधर से उधर मण्डला- कार चक्कर लगाते हुए, अभिमन्यु और दुःशासन परस्पर एक दूसरे पर आघात करने लगे। महावीर अभिमन्यु ने दुःशासन से कहा :- आज हमने बड़े भाग्य से युद्ध में तुम्हें सामने पाया है। हमारे चचा लोगों को जो तुमने कटु वाक्य कहे हैं उन सबका बदला आज हम लिये लेते हैं। यह कह कर दुःशासन का नाश करने के लिए अर्जुननन्दन अभिमन्यु ने आग के सदृश तेज- वाले बाण मारे । वे बाण दुःशासन के शरीर के भीतर घुस गये । दुःशासन रथ पर गिर पड़े और मूर्च्छित हो गये । उनकी यह दशा देख सारथि उन्हें मैदान से भगा लाया। तब धृतराष्ट्र के पुत्रों के परम हितकारी महा-धनुर्धर कर्ण ने बड़ा क्रोध करके अभिमन्यु को एक तीक्ष्ण बाण मारा। परन्तु, अभिमन्यु इससे जरा भी न पीड़ित हुए और जरा भी अपनी जगह से
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