पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/२५

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[पहला खण्ड वंशावली देखिए, आपके साथ सम्बन्ध छोड़ने की इच्छा मैं तो क्या, स्वयं इन्द्र भी नहीं कर सकते । महर्षि पराशर ने इस कन्या के साथ विवाह करने की इच्छा बार बार मुझ पर प्रकट की। परन्तु राजा के साथ सम्बन्ध करना ही मैंने इसके लिए अच्छा समझा । इससे मैंने महर्षि पराशर की बात नहीं मानी । परन्तु हे राजकुमार । इसके साथ विवाह करने से इसकी सन्तान के कारण आपके राज्य में घोर शत्रता और विद्रोह होने का डर है। जिसके आप सौतेले भाई होंगे जिसके साथ आपका वैर-भाव होगा-उसकी क्या कभी रक्षा हो सकती है ? उसका कभी कल्याण नहीं हो सकता। इस विवाह में यही एक दोष है, और कुछ नहीं । इस दशा में मैं कन्यादान कर सकता हूँ या नहीं, इसका विचार आप ही कर देखिए। महात्मा देवव्रत धीवर का मतलब समझ गये। उन्हें अपने सुख की अपेक्षा पिता ही के सुख का अधिक ध्यान था। अतएव अपने स्वार्थ की-अपने सुख की-उन्होंने कुछ भी परवा न की। वे उसे छोड़ने के लिए तत्काल तैयार हो गये। उन्होंने कहा : हे धीवर-श्रेष्ठ ! डर का कोई कारण नहीं । तुम बिलकुल न डरो। हमने तुम्हारे मन की बात जान ली है। हमें तुम्हारी इच्छा पूर्ण करना सब तरह स्वीकार है। तुम्हारी कन्या के गर्भ से जो पुत्र उत्पन्न होगा वही इस राज्य का स्वामी होगा; उसी को यह राज्य मिलंगा। यह सुन कर धीवर बहुत प्रसन्न हुआ और बोला : हे शत्रुमर्दन ! यदि आप मुझ पर क्रोध न करें तो मैं और भी एक बात आपसे कहूँ। संसार में सब लोग इस बात को जानते हैं कि आप सत्यवादी हैं; आप सदा सत्य ही बोलते हैं। जब आपने सत्यवती के पुत्र को राज्य देने की प्रतिज्ञा की है तब उस विषय में किसी को कुछ भी सन्देह नहीं हो सकता । किन्तु यदि आगे किसी समय आपका कोई वंशज आपकी प्रतिज्ञा को न माने और उसके विपरीत काम करें तो उसका क्या उपाय होगा ? तब महात्मा देवव्रत ने पिता के सुख को सर्वोपरि समझ, वहाँ पर जितने क्षत्रिय उपस्थित थे सबको सुना कर ये वचन कहे : हे धीवर-राज ! हमारी सत्य प्रतिज्ञा सुनो। हम जो सत्य व्रत करने जाते हैं उसे श्रवण करो। हम पहले ही राज्य के अधिकार से हाथ खींच चुके हैं। हमने पहले ही कह दिया है कि हम सत्यवती के पुत्र को राजा बनावेंगे। अब हम यह प्रतिज्ञा करते हैं कि हम विवाह भी न करेंगे। आज से आमरण हम ब्रह्मचय्ये धारण करेंगे। इससे सत्यवती के पुत्र को राज्याधिकार से हटाने का कुछ भी डर न रह जायगा। उसे राज्य प्राप्त करने में कोई बाधा न पा सकेगी। देवव्रत ने अपने स्वार्थ पर इस तरह पानी डाल दिया। उन्होंने उदारता की हद कर दी। उन्होंने राज-पाट भी छोड़ दिया और जन्म भर अविवाहित रहने का प्रण भी किया । उनकी इस विकट प्रतिज्ञा को सुनकर सब लोग धन्य ! धन्य ! कहने लगे और स्वर्ग से देवता फूल बरसाने लगे। ऐसा भीषण प्रण करने के कारण उस समय से सब लोग देवव्रत को भीष्म कहने लगे। तभी से उनका नाम भीष्म पड़ा। उस धीवर का अभिलाष पूर्ण हुआ। जो बात वह चाहता था वह हो गई। इससे उसे बड़ा आनन्द हुआ। शान्तनु के साथ अपनी कन्या का विवाह करना उसने प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार किया और सत्यवती को भीष्म के सिपुर्द कर दिया। भीष्म उसे शान्तनु के पास ले आये और पिता का दुःख दूर करके कृतार्थ हुए। पिता शान्तनु भीष्म से बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने पुत्र को यह वरदान दिया कि तुम्हें इच्छा-मृत्यु प्राप्त हो-इच्छा से ही तुम्हारी मृत्यु हो । अथात् यदि तुम अपने मन से न मरना चाहो तो मृत्यु का तुम पर कुछ भी जोर न चले। सत्यवती के दो पुत्र हुए-चित्राङ्गद और विचित्रवीर्य्य । इसके कुछ काल पीछे सत्यवती को छोड़ कर राजा शान्तनु परलोक सिधारे। माता सत्यवती की सलाह से भीष्म ने पहले चित्राङ्गद को