दूसरा खण्ड ] युद्ध का प्रारम्भ २१५ ___ यह देख कर अर्जुन को बड़ी लज्जा लगी। अपने प्यारे बन्धु कृष्ण के इस तरह अकेले ही शत्रु-सेना की तरफ़ जाने से उन्हें बड़ी चिन्ता हुई। इससे वे भी तुरन्त ही रथ से उतर पड़े और कृष्ण के पीछे दौड़े। कृष्ण कोई सौ क़दम भी न गये होंगे कि अर्जुन ने जाकर उनकी दोनों भुजायें पकड़ ली । परन्तु कृष्ण उस समय मारे क्रोध के जल रहे थे। उन्होंने अर्जुन से इस तरह पकड़े जाने की कुछ भी परवा न की; उनको घसीटते हुए वैसे ही वे आगे बढ़ते गये। तब अर्जुन ने लाचार होकर उनके दोनों पैर पकड़ लिये और न म्रतापूर्वक लाल-लाल आँखें किये हुए कृष्ण से बोले :- . - हे महाबाहो ! लौटिए, युद्ध में शामिल होने से आपकी प्रतिज्ञा टूट जायगी। इससे आपकी अपकीर्ति होगी और हमारी लज्जा का ठिकाना न रहेगा। जब हमारे ही ऊपर सारी जवाबदारी है तब हमी पितामह को मारेंगे। आप अब और आगे न बढ़िए। अर्जुन की बात का कुछ भी उत्तर दिये बिना ही, विषधर सर्प की तरह जोर से साँस लेते हुए, कृष्ण फिर रथ पर सवार हो गये । परन्तु इस बीच में भीष्म ने पाण्डवों की सेना की इतनी दुर्दशा कर डाली थी कि उसमें से एक भी जवान अपनी जगह पर खड़ा नहीं रह सका । युधिष्ठिर ने जब देखा कि अर्जुन का मन युद्ध में नहीं लगता तब उन्हें बड़ा खेद हुआ। उधर सायङ्काल भी हो चुका था। इससे और कोई उपाय न देख कर लाचार उन्हें उस दिन का युद्ध समाप्त करने के लिए आज्ञा देनी पड़ी। उस रात को युधिष्ठिर ने सब लोगों को सलाह करने के लिए बुलाकर कृष्ण से कहा :- हे वासुदेव ! पितामह बड़े ही पराक्रमी हैं। उनके बल-विक्रम का कहीं ठिकाना है ! देखिए, वे हमारी सेना का इस तरह नाश करते हैं जैसे मतवाला हाथी सरपतों के वन का तहस-नहस कर डालता है। हममें से किसी में भी इतना सामर्थ्य नहीं जो उन्हें रोक सके- उनका निवारण कर सके-उनके आक्रमण से सेना को बचा सके। भीष्म के प्रबल प्रताप ने आज हमें अपनी मूर्खता के कारण शोक- सागर में डुबो दिया है। उससे उबारनेवाला इस समय हमें कोई नहीं देख पड़ता। अतएव हम अब और युद्ध नहीं करना चाहते । यदि आप हमें अपनी कृपा का पात्र समझते हों तो इस विषय में आप कोई ऐसा उपदेश हमें दें जिसमें हमारा भला हो। युधिष्ठिर की इस विह्वलता के कारण कृष्ण को बहुत दुःख हुआ। उन्होंने युधिष्ठिर को अनेक प्रकार से धीरज दिया। वे बोले :- हे धर्मराज ! आपके भाई भीम और अर्जुन सहज में जीते जाने योग्य नहीं। वे दुर्जय हैं। नकुल और सहदेव भी बड़े तेजस्वी हैं । ऐसे भाइयों के होते आपको रंज न करना चाहिए। यदि अर्जुन युद्ध करने से बिलकुल ही इनकार कर दें तो आप हमें आज्ञा दीजिए; हम शस्त्र धारण करके भीष्म के साथ युद्ध करेंगे । आपके शत्रु हमारे शत्रु हैं और आपकी विपद हमारी विपद है। अर्जुन हमारे प्रियतम मित्र हैं; उनके लिए हम प्रसन्नतापूर्वक प्राण तक देने को तैयार हैं । अर्जुन ने सबके सामने भीष्म के मारने की प्रतिज्ञा की है । इस समय यदि वे उस प्रतिज्ञा को पूरा न करना चाहेंगे तो हम खुद उसके पूरा करने का भार अपने ऊपर लेंगे। यह सुन कर युधिष्ठिर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा :-- हे मधुसूदन ! जब तुम हमारी तरफ़ हो तब हमारे सभी अभिलाष पूर्ण होंगे; इसमें कोई सन्देह नहीं । परन्तु तुम्हें युद्ध में शामिल होने के लिए कहना मानो तुम्हें मिथ्यावादी बनाना है। अपने और तुम्हारे, दोनों के, गौरव के खयाल से हम यह बात नहीं करना चाहते । महात्मा भीष्म दुर्योधन की तरफ़ होकर युद्ध करते हैं, यह सच है; किन्तु युद्ध प्रारम्भ होने के पहले उन्होंने कहा था कि, मौका आने पर, हमारे भले के लिए वे कोई अच्छा उपदेश देंगे। इसलिए, आइए, सब मिल कर इस समय उन्हीं की शरण चलें।
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