पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/२३९

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दूसरा खण्ड] युद्ध का प्रारम्भ २११ और पराक्रम दिखलाते हैं और बड़े ही बल-विक्रम से युद्ध करते हैं। परन्तु पाण्डवों के सामने उनकी कुछ भी नहीं चलती। उनकी सारी वीरता व्यर्थ जाती है। इसके लिए आप भाग्य को दोष न दीजिए। आपके पुत्रों ही के दोष से यह जनसंहारकारी घोर युद्ध हो रहा है। सब बातों का फलाफल जान कर भी इसके रोकने की आपने चेष्टा नहीं की। अब शोक करने से क्या लाभ है ? अब आप जी कड़ा करके प्रतिदिन का हाल चुपचाप सुन लिया कीजिए । इसके अनन्तर, आठवें दिन का युद्ध हो रहा था कि उलूपी नाम की अर्जुन की दूसरी स्त्री के गर्भ से उत्पन्न हुआ उनका पुत्र इगवान् वहाँ अकस्मात् आ पहुँचा । उलूपी नाग-कन्या थी । उसका पुत्र यह इरावान् बहुत ही सुन्दर था और बली भी बहुत था। उसका लालन-पालन और शिक्षण ननिहाल में हुआ था । जब युद्ध का समाचार उसे मिला तब उसने भी पिता की मदद के लिए बहुत सी नाग-सेना साथ लेकर कुरुक्षेत्र को प्रस्थान किया । वहाँ आकर उसने कौरवों की अनन्त सेना काट-कूट डाली। कुछ देर तक युद्ध करने के बाद सुबल-देश की सेना पर, जो शकुनि के अधिकार में थी, इरावान् ने धावा किया। इस पर गान्धार लोगों ने चारों तरफ से इरावान् को घेर लिया और अत्यन्त पैने अस्त्र-शस्त्रों से उसके शरीर पर घाव ही घाव कर दिये । परन्तु इरावान् ने इसकी कुछ भी परवा न की। पहले से भी अधिक निर्दयता से वह गान्धार लोगों को मार गिराने लगा। यह देख कर दुर्योधन ने शकुनि की मदद के लिए बहुत सी कुमक भेजी। उसे आई देख इरावान् का क्रोध दूना हो गया । शकुनि के सिवा उस सेना का एक भी वीर उससे जीता न बचा । सब युद्ध के मैदान में सो रहे । यदि शकुनि की रक्षा और लोग न करते तो वे भी न जीते बचते। यह दशा देख कर दुर्योधन के क्रोध का ठिकाना न रहा। भीम ने वक नाम के एक राक्षस को मारा था। उस राक्षस के आयशृङ्ग नामक एक नौकर था। इरावान् को मारने के लिए दुर्योधन ने इसी आयशृङ्ग को भेजा। वह ज्यों ही इरावान् के सामने आया त्यों ही इरावान् ने अपनी तलवार से उसके धनुष का काट डाला और उसे खुद भी बहुत घायल किया। तब वह राक्षस मायायुद्ध करने लगा। वह आकाश में उड़ गया। पर इरावान् ने वहाँ भी उसका पीछा न छोड़ा। आकाश में भी उसने अपने तेज़ बाणों से प्रार्घ्यशृङ्ग के शरीर की चलनी बना दी । तब वह राक्षस बहुत ही कुपित हुआ। उसने अत्यन्त विकराल रूप धारण करके बालक इरावान् को मोहित कर लिया । इरावान् संज्ञा-शून्य हो गया। यह मौका अच्छा हाथ आया देख आर्यशृङ्ग ने अपनी तीक्ष्ण तलवार से इरावान् के किरीट-शोभित शीश को ज़मीन पर काट गिराया। इस पर कौरवों को बड़ा आनन्द हुआ। उस समय अर्जुन युद्ध के मैदान में एक और जगह शत्रुओं का नाश करने में लगे हुए थे । इससे उन्हें इस घटना की कुछ भी खबर नहीं हुई। परन्तु भीम- सेन के पुत्र घटोत्कच को यह सब हाल मालूम हो गया । अपने भाई इगवान् की मृत्यु से उसे बड़ी व्यथा हुई। क्रोध से वह पागल हो उठा । अनेक राक्षसों को लेकर बड़े ही भीम-विक्रम से वह दुर्योवन पर जा टूटा । घटोत्कच के हाथ से दुर्योधन को बचाने के लिए महावीर वङ्ग-नरेश ने हाथियों की अनन्त सेना लेकर उसे घेर लिया। तब बड़ा ही घोर युद्ध होने लगा। राजा दुर्योधन ने जीने की आशा छोड़ कर राक्षसों के उस वृन्द पर सैकड़ों, हजारों पैने पैने बाण बरसाने आरम्भ किये । इससे बहुत से प्रधान प्रधान राक्षस मारे गये। यह देखकर घटोत्कच के क्रोध का ठिकाना न रहा । उसने एक ऐसी प्रचण्ड शक्ति दुर्या- धन पर छोड़ी जो किसी प्रकार व्यर्थ नहीं जा सकती थी। वङ्ग-नरेश ने देखा, अब दुर्योधन का बचना कठिन है । इससे अपने रथ के द्वारा दुर्योधन को छिपा कर अपने ही ऊपर उन्होंने उस शक्ति को लिया । उसके लगते ही वङ्ग-राज के प्राणों ने शरीर से प्रस्थान कर दिया। उस समय दुर्योधन को राक्षसों से घिरा हुआ देख कर भीष्म द्रोणाचार्य के पास गये और बोले:-