दूसरा खण्ड] युद्ध का प्रारम्भ २०३ द्रोणाचार्य ने कहा :-हे युधिष्ठिर ! तुम यदि गुरु से पूछे बिना युद्ध प्रारम्भ कर देते तो हमें जरूर ही तुम पर क्रोध आता और जी से हम यही चाहते कि तुम्हारी हार हो । परन्तु ऐसा न करके जो तुम हमारे पास आये हो तो हम प्रसन्न होकर तुम्हें आशीर्वाद देते हैं कि तुम्हारी ही जीत हो। कौरवों का अन्न खाने के कारण हमें उनकी तरफ़दारी करनी पड़ी है। हम बड़े ही दीन भाव से कहते हैं कि तुम 'हमें अपनी तरफ़ हो जाने की बात के सिवा और जो कुछ चाहो माँग सकते हो। तब युधिष्ठिर ने जैसी भीष्म से प्रार्थना की थी वैसी ही द्रोण से भी की । उन्होंने कहा :- हे गुरु ! आप कौरवों की तरफ़ होकर युद्ध कीजिए; हमारे लिए आप सिर्फ इतना ही कीजिए कि कोई ऐसा उपदेश दीजिए जिसमें हमारा भला हो । इसके उत्तर में द्रोण ने कहा :- हे राजन् ! महात्मा कृष्ण ही जब तुम्हारे मंत्री हैं तब हम और क्या उपदेश दे सकते हैं ? हे धर्मराज! धर्म तुम्हारे ही पक्ष में है; इससे तुम्हारी ही जीत होगी। इसमें कोई सन्देह नहीं। परन्तु जब तक हम युद्ध के मैदान में उपस्थित रहेंगे तब तक तुम्हारी जीत होने की कोई आशा नहीं। इससे सब भाई मिल कर तुम शीघ्र ही हमें मार डालने की कोशिश करना। इसके अनन्तर कृपाचार्य की अनुमति लेने के लिए युधिष्ठिर उनके पास गये और बोले :- हे पाये ! आज्ञा हो तो हम शत्रुओं को परास्त करें। कृपाचार्य ने आशीर्वाद दिया और कहा :- महाराज ! मनुष्य अर्थ का दास है; इससे उसे धन-सम्पत्ति मिलती है उसी का वह दास बन कर रहता है। हमारा भी ठीक यही हाल है। कौरवों ने हमें दासपन में बाँध सा लिया है। इससे इस युद्ध में हमारी सहायता को छोड़ कर और जो कुछ कहो हम करने को तैयार हैं। तब युधिष्ठिर, पहले की तरह, युद्ध में जीत होने के विषय में उपदेश मांगने को तैयार हुए। परन्तु उनको यह संदेह हुआ कि द्रोण की तरह कृपाचार्य यह न कह दें कि लड़कपन के बूढ़े गुरु को मारे बिना जीत की आशा व्यर्थ है । यह सोच कर युधिष्ठिर को बड़ा दुःख हुआ । उनका कण्ठ भर आया; मुँह से बात न निकली। युधिष्ठिर की इस कातरता का कारण मालूम होने पर कृपाचार्या बार बार आशीर्वाद देकर कहने लगे :- महाराज! हम तुम्हारे हाथ से अवध्य जरूर हैं-हम तुम्हारे द्वारा वध किये जाने के पात्र नहीं । तथापि कोई चिन्ता की बात नहीं। हमें मारे बिना भी तुम्हारी जीत होने में कोई बाधा न आवेगी। यह सुन कर युधिष्ठिर की चिन्ता दूर हो गई। उन्हें बहुत कुछ ढाढ़स हुआ। अन्त में अपने मामा शल्यराज के पास जाकर युधिष्ठिर ने उनको प्रणाम किया और प्रेमपूर्वक बातचीत करके युद्ध करने के लिए अनुमति माँगी। शल्य ने कहा :- बेटा! तुम्हारे शत्रुओं की तरफ़ होकर लड़ने के लिए हम किस तरह प्रतिज्ञा में बंधे हैं, सो तो तुम जानते ही हो। इस समय, कहो, हम तुम्हारा क्या हित-साधन कर सकते हैं। युधिष्ठिर ने कहा :-महाराज ! आपने पहले जो प्रतिज्ञा की है कि युद्ध के समय सूतपुत्र के तेज को हम कम कर देंगे उसे न भूल जाइएगा।
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