२०० सचित्र महाभारत [दूसरा खण्ड हे अर्जुन ! ऐसे विषम समय में क्यों तुम मूर्ख आदमियों की तरह मोह कर रहे हो ? इस तरह मोह में पड़ना तुम्हें उचित नहीं। अपने हृदय से इस तुच्छ दुर्बलता को दूर करके उठो और क्षत्रियों के धर्म का पालन करो। अर्जुन ने कहा :-हे कृष्ण ! अपने परम पूज्य गुरुजनों को वध करने की अपेक्षा इस लोक में भीख माँग कर पेट भरना हम सौगुना अधिक अच्छा समझते हैं। इन लोगों के मारे जाने पर हम जीकर ही कौन सा सुख भोगेंगे ? जब यही न रहेंगे तब हम राज्य लेकर करेंगे क्या ? हे मित्र ! कातरता और दया ने हमें अपने वश में कर लिया है। इससे हम धर्मान्ध हो रहे हैं। हमें कुछ सूझता नहीं। आप हमें उपदेश दीजिए । हम आपकी शरण हैं। तब कृष्ण हँस कर अर्जुन से बोले :- __ भाई ! जिन बातों का विचार करके तुम अपनी आत्मा को पीड़ित कर रहे हो-अपने जी को इतना दुःख दे रहे हो-वे ऊपर से देखने में तो ठीक मालम होती हैं, परन्तु, खूब सोच-समझ कर उनका विचार करने से तुम्हें यह अवश्य मालूम हो जायगा कि तुम्हारे विचार और तुम्हारी युक्तियाँ भ्रमपूर्ण हैं । मनुष्य का सुख-दुख एक बहुत ही छोटी बात है। इस क्षुद्र सुख-दुख के खयाल से मनुष्य को अपना कर्तव्य और अकर्तव्य न भूलना चाहिए। उसका जो कर्तव्य हो उसे, सुख-दुःख का कुछ भी विचार न करके, निःसङ्कोच, करना चाहिए। और जो उसका कर्तव्य न हो, अर्थात् जो बात उसे करना उचित न हो, उसे कदापि न करना चाहिए, चाहे उसके करने से कितने ही सुख की प्राप्ति उसे क्यों न होती हो। मनुष्य की बुद्धि ही कितनी ? बुद्धि के अनुसार हर एक बात के फलाफल का विचार करना व्यर्थ है। जिसका फल तुम अपनी बुद्धि के अनुसार अच्छा समझते हो, बहुत सम्भव है, उसका फल बुरा हो; और जिसका तुम बुरा समझते हो उसका अच्छा हो। हम तो कोई काम ऐसा नहीं देखते जिसके विषय में यह नि:सन्देह कहा जा सके कि इसका फल यह होगा। इससे मनुष्य को चाहिए कि भले-बुरे फल और सुख-दुःख की कुछ भी परवा न करके अपने धर्म के अनुसार अपना कर्तव्य- पालन करे । हे क्षत्रियों में श्रेष्ठ ! दिल को कड़ा करके क्षत्रियों के धर्म के अनुसार तुम युद्ध करो। ऐसा करने से तुम्हें लेश-मात्र भी पाप न होगा। हे अर्जुन ! चिरकाल से जो हजारों घटनायें एक के बाद एक होती आई हैं वहीं इस इतने बड़े क्षत्रियों के कुल के क्षय का कारण होंगी। इस युद्ध को उन्हीं घटनाओं का फल समझना चाहिए। इसके उत्तरदाता न तो तुम्ही हो और न और ही कोई है । इससे हे कुटुम्बवत्सल ! तुम अपने मन में यह समझ लो कि तुम किसी की मृत्यु का कारण नहीं हो सकते । न मालूम कब से कार्य और कारण का प्रवाह चला आता है । उसी से जो कुछ होने को होता है हो जाता है । मनुष्य का किया कुछ भी नहीं होता । तुम्हारा जो काम है-तुम्हारा जो निज का कर्तव्य है-उसे यदि तुम दया-मया छोड़ कर करोगे तो तुम्हारे धर्म की रक्षा भी होगी और अन्त में सब प्रकार मंगल भी होगा। कृष्ण के इस अनमोल उपदेश को सुन कर अर्जुन का मोह जाता रहा। उनके ध्यान में यह बात तत्काल आ गई कि हमारे कुल का-हमारी जाति का-क्या धर्म है । तब उन्होंने मन को धीरज देकर कृष्ण से कहा :- हे वासुदेव ! आपकी कृपा से हमारा मोहान्धकार दूर हो गया। आपने हमें युद्ध करने के लिए जो उपदेश दिया उस उपदेश का पालन जहाँ तक हमसे हो सकेगा अपनी शक्ति के अनुसार हम अवश्य करेंगे। . इसके बाद अर्जुन ने फिर अपने गाण्डीव धनुष को हाथ में लिया और युद्ध के काम में दत्तचित्त हुए।
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