दूसरा ल युद्ध की तैयारी १९७ तब महावीर अर्जुन ने कहा :- हे उलूक ! तुम दुर्योधन से हमारा उत्तर इस प्रकार कहना :- हे महात्मा ! तुम यदि अपने बल और वीर्य्य के भरोसे हम लोगों को युद्ध के लिए ललकारते तो हम तुम्हें क्षत्रिय समझ कर तुम्हारे साथ आनन्दपूर्वक युद्ध करते-तो हम बड़ी ही खुशी से तुम्हारे निमन्त्रण को स्वीकार करते । किन्तु हे नीच ! तुम अपने मन में यह न समझना कि जो बड़े बूढ़े गुरुजन वध किये जाने के पात्र नहीं हैं, उन्हें युद्ध में आगे करने से हमारे मन में दया उत्पन्न हो आवेगी। इसलिए, हम उन्हें न मारेंगे। ऐसा कभी न होगा। जिन भीष्म के भरोसे तुम इतना उछल-कूद रहे हो, हम प्रतिज्ञा करते हैं कि हम खुद इस युद्ध में उन्हें मारेंगे। तुमने कहला भेजा है कि तुम कल ही से युद्ध के लिए तैयार हो, सो बहुत अच्छी बात है। यह हमें मंजूर है। कल ही गाण्डीव के मुँह से इस बात का उचित उत्तर तुम्हें मिलेगा। अन्त में धर्मराज ने उलूक से कहा :- हे तात ! सुयोधन से तुम कहना :- भाई तुम्हारा निज का जैसा चरित्र है वैसा ही तुम औरों का न समझो। तुमने अपनी मुर्खता और दुर्बुद्धि से जो अन्याय किया है, उसका फल चखने के लिए अपने सामर्थ्य के अनुसार तैयार रहो। इसके अनन्तर जितने राजा लोग पाण्डवों की सभा में बैठे थे सबने दुर्योधन के संदेशे का तरह तरह से यथोचित उत्तर देकर उलूक से चले जाने को कहा। उलूक ने लौट कर आदि से अन्त तक सारा हाल दुर्योधन से कह सुनाया। दुर्योधन की आज्ञा से रथों, घोड़ों और ऊँटों आदि पर सैकड़ों दूत दौड़ पड़े। कौरवों की उस उतनी बड़ी सेना में सब कहीं जाकर उन्होंने राजों और सेनाध्यक्षों से कहा कि कल सूर्य उदय होने के पहले ही युद्ध छिड़ जायगा । राजा की आज्ञा है कि सब लोग तैयार रहें। इसके अनन्तर दुर्योधन की आज्ञा के अनुसार कौरवों की तरफ जितने राजा थे सबने प्रात:काल होने के पहले ही स्नान किया; मालायें धारण की; सफेद कपड़े पहने; अस्त्र-शस्त्र तथा ध्वजायें हाथ में ली; और स्वस्ति-वाचन तथा अग्निहोत्र किया। इस प्रकार तैयार होकर एकाग्र-मन से सब युद्ध के मैदान को चले। __मैदान गोल मण्डलाकार था। उसका विस्तार पाँच योजन से कम न होगा। इस मैदान का आधा भाग कौरवों के अधिकार में था और आधा पाण्डवों के। कौरवों के सेनापति इसी मैदान के पश्चिमी भाग में अपनी सेना युद्ध के लिए सजाने लगे। उधर युधिष्ठिर ने भी अपने सेनाध्यक्षों को युद्ध के मैदान में चलने के लिए आज्ञा दी। राजाज्ञा पाकर वे लोग भी लोहे के चित्र-विचित्र कवच धारण करके, कारीगरों और मिस्त्रियों आदि को सेना के डेरों में छोड़ कर-सेना, हाथी, घोड़े, रथ आदि लेकर युद्ध के मैदान के पूर्वी भाग में जा डटे । वहाँ उन्होंने अपनी सेना का विभाग ऐसी चालाकी से किया कि शत्रों को भ्रम हो गया। उन लोगों ने समझा कि पाण्डवों की सेना का यह विभाग ऐसा ही रहेगा और इसी दशा में वे युद्ध शुरू करेंगे। परन्तु बात बिलकुल ही उलटी निकली। पाण्डवों ने शत्रुओं को भ्रम में डालने ही के लिए यह चालाकी की थी। सेना-विभाग का जो ढंग कौरवों को दिखाई दिया था, युद्ध शुरू होने पर वह एकाएक बदल गया। इससे कौरवों को बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ा। उनकी सारी बेशबन्दी खाक में मिल गइ। इस तरह कौरवों को चकमा देकर युधिष्ठिर ने युद्ध के समय प्रत्येक विभाग की सेना के पहचानने में किसी तरह का गड़बड़ न हो, इसलिए हर एक विभाग के लिए जुदा जुदा चिह्न, जुदी जुदी भाषा और जुदी जुदी संज्ञा निश्चित कर दी।
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