पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/२१८

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१९० सचित्र महाभारत [ दूसरा खण्ड चिन्ता में डूब गई । अन्त में उन्होंने कर्ण को ही दुर्योधन का सबसे बड़ा सहायक समझ उन्हें पाण्डवों के पक्ष में कर लेने का विचार किया। उन्होंने मन में कहा कि कर्ण से यदि उसके जन्म का सच्चा हाल कह दें तो वह जरूर ही युधिष्ठिर की तरफ हो जायगा । कर्ण मेरा पुत्र है; इससे वह मेरी हितकर बात कभी न टालेगा। यह सोच कर उनके जी को बहुत कुछ धीरज पाया और कर्ण से मिलने की इच्छा से वे गंगातट को चल दी। वहाँ जाकर उन्होंने देखा कि उनके पुत्र महा-तेजस्वी कर्ण पूर्व की ओर मुंह किये हुए बैठे वेद- पाठ कर रहे हैं। कुन्ती उनके पीछे खड़ी होकर वेदपाठ समाप्त होने की राह देखने लगी। दोपहर तक कर्ण पर्व की तरफ मुँह किये हए वेद-पाठ करते रहे। उसके बाद जब सर्य पश्चिम की तरफ जाने लगा तब उन्होंने भी अपना मुँह पश्चिम की तरफ़ फेरा । उस तरफ़ होते ही कर्ण को कुन्ती देख पड़ी। उन्हें देख कर कर्ण बहुत विस्मित हुए। उन्होंने कुन्ती को नमस्कार किया और हाथ जोड़ कर बोले :- देवि ! अधिरथ और राधा का पुत्र कर्ण आपको प्रणाम करता है । आप किस लिए इस समय यहाँ आई हैं ? कहिए आपकी क्या आज्ञा है ? कुन्ती बोली :-बेटा ! तुम अधिरथ और राधा के पुत्र नहीं; सूत के कुल में तुम्हारा जन्म नहीं हुश्रा । तुम हमारे ही पुत्र हो; सूर्य देवता के वर से तुम हमें प्राप्त हुए थे। जिस समय हम कन्या- अवस्था में थीं उसी समय तुम्हें हमने पाया था। शास्त्रानुसार तुम महात्मा पाण्डु ही के पुत्र हो; परन्तु मोह के वश होकर अपने भाइयों के साथ मित्रभाव न रख कर तुम दुर्योधन की सेवा करते हो। यह क्या अच्छी बात है ? माता-पिता को प्रसन्न रखना पुत्र का सबसे बड़ा धर्म है । इससे छल-कपट द्वारा हरे गये पाण्डवों के राज्य का उद्धार करके तुम्हीं उसका भोग करो। कर्ण और अर्जुन को एक हो जाते देख कौरव लोग पाण्डवों के सामने ज़रूर ही सिर झुकावेंगे। तुम और अर्जुन यदि एक हो जावगे तो कौन ऐसा काम है जो तुमसे न हो सके ? तुम सब गुणों से सम्पन्न हो और हमारे पुत्रों मे सबसे बड़े हो। इससे तुम जो सूत-पुत्र कहलाते हो सो हमें अच्छा नहीं लगता। जिसमें तुम्हें कोई सूत-पुत्र न कहे, वही करना चाहिए। कुन्ती की बात समाप्त होने पर कर्ण ने कहा :- हम आपकी बात नहीं मान सकते । आपका कहना करने से हमारी धर्म-हानि होगी । आप ही के कर्म-दोष से हमारी सूत-जाति में गिनती हुई है। हमारे पैदा होते ही हमको त्याग करके क्षत्रिय-वंश में हमारा जन्म आपने वृथा कर दिया। इससे अधिक हानि तो हमारा शत्र भी नहीं कर सकता। पहले तो आपने हमारे साथ माता का ऐसा व्यवहार नहीं किया; अब इस समय अपना काम निकालने के लिए आप हमें अपना पुत्र बनाने चली हैं। धृतराष्ट्र के पुत्रों ने आज तक हमारा बहुत कुछ सत्कार किया है। अब आपके कहने से किस तरह हम उनके साथ कृतन्त्रता का व्यवहार कर सकते हैं ? हमारे ही भरोसे वे युद्ध में विजय पाने की आशा करते हैं । फिर भला किस तरह हम उन्हें इस समय निराश कर सकते हैं ? उन्हें इस समय छोड़ देना मानो उनके साथ विश्वासघात करना है। जिन लोगों के साथ दुर्योधन श्रादि कौरवों ने उपकार किया है, यह समय उनके कृतज्ञता दिखाने का है । हम पर जो उनका ऋण है उसे हम युद्ध में इस समय उनकी सहायता करके चुकाना चाहते हैं। इससे दुर्योधन के हित के लिए आपके पुत्रों के साथ हम अवश्य ही युद्ध करेंगे। इसमें कभी फर्क न पड़ेगा। परन्तु, हे पुत्रवत्सले ! आपको प्रसन्न करने के लिए हम यह प्रण करते हैं कि युधिष्ठिर, भीम, नकुल और सहदेव इन आपके चारों पुत्रों से हमारा कुछ भी वैर नहीं । अतएव युद्ध में हम इनके कभी प्राण न लेंगे; इसे सच समझिए और निश्चय जानिए । आपके पांच पुत्र फिर भी बने ही रहेंगे, क्योंकि, यदि अर्जुन न जीते रहेंगे तो हम जरूर हा जीते रहेंगे। कर्ण के मुँह से इस तरह की यथार्थ बातें सुन कर दुख से कुन्ती कांप उठी; परन्तु कोई उत्तर उनके मुंह से न निकला। अन्त में उन्होंने कर्ण को गले से लगा कर कहा:-