१८२ सचित्र महाभारत [दूसरा खएर हैं; और, दुःशासन, शकुनि और कर्ण उनके पास ऊँचे-ऊँचे आसनों पर बैठे हैं। कृष्ण के पहुँचते ही सब लोग उठ खड़े हुए और उनका अभिवादन करके विधि-पूर्वक उनका सत्कार किया। यदुकुल-श्रेष्ठ कृष्ण अत्यन्त कोमल बिस्तर बिछे हुए सुवर्णमण्डित आसन पर बैठ कर सबके साथ यथोचित बात- चीत करने लगे। इसके अनन्तर राजा दुर्योधन ने कृष्ण को भोजन करने के लिए निमन्त्रित किया । परन्तु, कृष्ण ने निमन्त्रण को स्वीकार न किया। तब सबके सामने दुर्योधन इस प्रकार शठतापूर्वक मृदु वचन बोले:- हे जनार्दन ! ये सब तैयारियां श्राप ही के लिए हुई हैं। फिर आप क्यों हमारे निमन्त्रण को स्वीकार नहीं करते ? आप हमारे परम आत्मीय और परम प्यारे हैं। इससे हम यह जानना चाहते हैं कि क्या कारण है जो आप हमारे यहाँ भोजन नहीं करते। महात्मा कृष्ण ने दुर्योधन की विशाल भुजाओं पर हाथ रख कर कहा :- हे दुर्योधन ! हम दूत होकर आये हैं। काम सफल हो जाने पर दूत लोग पूजा और भोजन प्रहण करते हैं। इस कारण जिस काम से हम आये हैं उसके सिद्ध होने पर तुम्हारा निमन्त्रण हम स्वीकार करेंगे। दुर्योधन ने कहा :-हे कृष्ण ! यह बात आपने उचित नहीं कही । आप अपने काम में सफल हों या न हों, हम लोग, जहाँ तक हो सकेगा, आपकी सेवा-शुश्रूषा करने में त्रुटि न करेंगे। नम्रतापूर्वक हमारे बहुत कुछ अाग्रह करने पर भी, क्यों आप हमारी बात को टाल रहे हैं, इसका कुछ भी कारण हमारी समझ में नहीं आया। यह सुन कर कृष्ण कुछ मुसकराये और दुर्योधन की तरफ देख कर कहने लगे :- हे दुर्योधन ! यदि तुम सच्चा कारण जानने की बहुत ही इच्छा रखते हो तो सुनो। संसार में या तो लोग प्रीति के वश होकर दूसरे का अन्न ग्रहण करते हैं, या दुःख दारिद्रय से पीड़ित होने के कारण दूसरे का दिया खाते हैं। परन्तु, यहाँ पर न तुम्हारी प्रीति ही हम पर है और न हमें ही अन्न-वस्त्र की कमी है। फिर भला क्यों हम तुम्हारा अन्न खायें ? हमारे परम मित्र विदुर ने आज हमारा निमन्त्रण किया है। उन्हीं के यहाँ भोजन करना हमने उचित समझा है। यह कह कर कृष्ण वहाँ से चल दिये, और विदुर के घर जाकर बड़ी प्रीति से उन्होंने भोजन किया। रात को विदुर ने कहा :- हे मधुसूदन ! आपने अच्छा नहीं किया जो आप इस समय यहाँ आये। दुयोधन महामूढ़ और महा अभिमानी है । उसे उचित अनुचित का ज्ञान नहीं। जो कुछ उसके जी में आता है, कर बैठता है। आप तो उसके हित के लिए उपदेश करने आये हैं, पर वह कभी आपका हितोपदेश न सुनेगा। कर्ण की गर्वपूर्ण बातों पर विश्वास करके उसने बहुत सी फौज इकट्ठी की है। इस समय वह अपने को अजेय समझता है-उसका खयाल है कि मुझे दुनिया में कोई नहीं जीत सकता । इससे वह किसी प्रकार आपकी बात न मानेगा। इस दशा में कौरवों की सभा में जाकर सन्धि के विषय में बातचीत करना, हमारी समझ में, आपके लिए किसी प्रकार मुनासिब नहीं । कृष्ण ने कहा :-हे विदुर ! आपकी हम पर बहुत प्रीति है। प्रीति ही के वश होकर आप ऐसा कह रहे हैं। आपका उपदेश बुरा नहीं। पर आप किसी तरह की चिन्ता न करेंगे। यदि कौरव लोग हमारी बात मान लेंगे तो मृत्यु के मुँह से उन्हें बचा लेने के कारण हमें बड़ा पुण्य होगा; और यदि वे लोग हमारी युक्ति-पूर्ण बातों का श्रादर न करेंगे तो भी कोई हानि नहीं । हमें यह समझ कर फिर भी परम सन्तोष होगा कि हमने उन्हें उचित सलाह तो दे दी । और, यदि, वे धर्म छोड़ कर
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