दूसरा खण्ड ] शान्ति की चेष्टा अर्जुन ने कहा-हमें जो कुछ कहना था सो धर्मराज ही ने कह दिया है। आपके कहने से सो यही बोध होता है कि सन्धि होना आप एक प्रकार असम्भव समझते हैं। परन्तु हे जनार्दन ! पहले ही से मन में इस तरह का सिद्धान्त करके सन्धि-स्थापन करने के लिए जाना उचित नहीं। श्रा पक्षों के प्रधान मित्र हैं। आपको हमारी भी मंगलकामना करनी चाहिए और कौरवों की भी। आपके मन में दोनों पक्षों के सम्बन्ध में कुछ भी भेद-भाव रहना मुनासिब नहीं । सन्धि असम्भव होने का हमें कोई कारण नहीं देख पड़ता। हम कोई बात ऐसी नहीं देखते जिससे सन्धि न हो सके। शकुनि, कर्ण आदि जो इस समय दुर्योधन के मुख्य सलाहकार हैं, हमें अपना राज्य लौटा देने से उनकी रत्ती भर भी हानि न होगी। इससे यदि आप अच्छी तरह चेष्टा करेंगे तो, आश्चर्य नहीं, जो आपका यत्न सफल हो जाय। __कृष्ण ने कहा-हे अर्जुन ! तुमने यथार्थ बात कही। हम दोनों पक्षों के सम्बन्ध का अच्छी तरह स्मरण रख कर, जहाँ तक हो सकेगा, दोनों पक्षों की एक सी हित-चिन्तना करेंगे। तब नकुल कहने लगे :- हे कृष्ण | धर्मराज आदि सभी ने शान्ति रखने की बात कही; परन्तु हमारे विचार में तो यह आता है कि यदि पहले शान्ति-स्थापन करने में सफलता न हो, तो डर दिखा कर भी अपना मतलब निकाल लेना बुरा न होगा। हम लोगों को युद्ध-सम्बन्धी जो सहायता और जो सामग्री मिली है उसे देख कर दुनिया में कौन ऐसा मूर्ख है जो हमारे साथ युद्ध के लिए तैयार होने का साहस करे । युक्ति से भरी हुई आपकी बात और कोई चाहे न सुने; परन्तु भीष्म, द्रोण और विदुर जरूर ही उन्हें श्रादरपूर्वक सुनेंगे और आपके अनुकूल अपनी राय भी देंगे । जहाँ आप वक्ता और वे लोग सहायक, वहाँ कौन काम ऐसा है जो सिद्ध न हो सके ? सहदेव ने कहा-हे शत्रनाश करनेवाले केशव ! महाराज युधिष्ठिर और दूसरे भाई तो धर्म- मार्ग ही को अच्छा समझ कर शान्ति स्थापन की चेष्टा में ही अपना भला समझते हैं। परन्तु हमारी राय वैसी नहीं। हम तो ऐसी चेष्टा को किसी तरह अच्छा नहीं समझते । भरी सभा में द्रौपदी का जो इतना भारी अपमान किया गया है उसका प्रायश्चित्त दुर्योधन की मृत्यु के सिवा और किस बात से हो सकता है ? बिना दुर्योधन को मारे हमारे हृदय का वह सन्ताप और किसी तरह दूर होने का नहीं। सहदेव के उत्तर की प्रशंसा करके सात्यकि ने कहा :- हे पुरुषोत्तम ! श्रीमान् सहदेव ने बहुत सच कहा। पाँचों पाण्डव और तपस्विनी द्रौपदी के इतने दिन के वनवास और अज्ञात वास में उन्हें जो सैकड़ों तरह के महादुःखदायी क्लेश सहने पड़े हैं उनसे हम सबके मन में महा उत्कट क्रोध उत्पन्न हुआ है। दुर्योधन को मारे बिना वह क्रोध किस तरह शान्त हो सकता है ? कौन ऐसा योद्धा है जो इस बात का समर्थन न करे-जो यह न कहे कि ऐसे भारी अपराध के लिए दुर्योधन को जरूर मारना चाहिए ? महावीर सात्यकि के मुँह से ऐसा वचन सुन कर वहाँ पर बैठे हुए योद्धाओं में कोलाहल होने लगा। वे लोग सात्यकि के वाक्य की बार-बार प्रशंसा करने लगे। कोई ऐसा न था जिसने सात्यकि को शाबास न कहा हो। उस समय द्रौपदी अपने पतियों के नम्र भाव को देख कर जीती ही मुर्दा सी बनी बैठी थी। परन्तु, सहदेव और सात्यकि के मुँह से जब उसने अपने मन की बात सुनी तब उससे चुप न रहा गया। तब उसने जाना कि मेरे दुःख से दुखी होनेवाले भी कोई यहाँ हैं। रोती हुई वह कृष्ण से कहने लगी :- फा० २३
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