१७६ सचित्र महाभारत [दूसरा खण्ड जन्म लेकर जैसे एक एक राजवंश के नाश का कारण होता है, उसी तरह, जान पड़ता है, कुलांगार दुर्योधन ने भरत-वंश के संहार ही के लिए जन्म लिया है। लक्षणों से तो साफ़-साफ़ यही मालूम हो रहा है। इसके कारण यदि भन्त-वंश समूल ध्वंस हो जाय तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। इससे हे केशव ! यदि किसी तरह दुर्योधन को शान्त करके यह कुलनाश निवारण किया जा सके तो बड़ी अच्छी बात है। यदि हम लोगों का नम्र होने की ज़रूरत हो तो इस इतने बड़े भरतकुल की रक्षा के लिए हम वह भी करने को तैयार हैं। धर्मराज तो नम्रता से काम लेने का वचन दे ही चुके हैं; अर्जुन भी इस वंशनाशकारी युद्व को कभी अच्छा न समझेगे। पहाड़, जो बेहद वजनी होता है, यदि हलका हो जाय; और श्राग, जिसमें हमेशा जलाने की शक्ति रहती है, यदि शीतल हो जाय; तो जैसे बहुत बड़े आश्चर्य को बात हो, वैसे ही महा उग्र स्वभाववाले भीमसन के मुंह से नम्रता भरा हुआ ऐसा मृदु वाक्य सुन कर महातेजस्वी कृष्ण को विस्मय हुआ । भीमसेन की बात का ठीक मतलब जान लेने की इच्छा से वे उनसे हँसी करने लगे। वे बोले :- हे भीमसेन ! प्रतिज्ञा-पालन का वचन जब पूरा भी न हुआ था, तभी से तुम युद्ध की प्रशंसा करते थे । वनवास के समय नीचे मुंह किये हुए तुम पड़े रहते थे-रात-रातभर तुम्हें नींद नहीं आती थी। हमेशा ही तुम क्रोध से जला करते थे। अकेले में हमेशा ही भौह टेढ़ी किया करते थे। हमेशा ही बार बार लम्बी साँसें लिया करते थे। दिन-रात युद्ध की चिन्ता के सिवा और किमी बात में तुम्हारा मन ही न लगता था। आज वनवास का वह क्लेश कहाँ गया ? कौरवों की सभा में द्रौपदी का जो अपमान हुआ था वह, इस समय, क्या तुम्हें बिलकुल ही भूल गया ? क्या समझ कर तुम नम्रता दिखाने की सलाह दे रहे हो ? दुर्योधन के पास अधिक फोज देख कर तुम्हें माह तो नहीं हो पाया ? तुम डर तो नहीं गय ? कृष्ण के इन वचनों का मतलब भीमसेन समझ गये। उन्होंने जान लिया कि इशारे से कृष्ण हमें कायर बना रहे हैं । इससे उन्हें बड़ा सन्ताप हुआ। वे इस प्रकार क्रोधपूर्ण वचन बोले :- हे वासुदेव ! आप इतने दिन से हमारे साथ रहते हैं, तिस पर भी, जान पड़ता है, आपने हमें अच्छी तरह नहीं पहचाना । इसी से आपने ऐसी अनुचित बात अपने मुंह से निकाली । आपको छोड़ कर और किसी में शक्ति नहीं जो हम पर ऐसा अन्यायपूर्ण दोष लगावे । हम अपनी बड़ाई अपने मुंह से नहीं करना चाहते; परन्तु हमारा वंश संसार में इतना प्रसिद्ध है कि उस पर हमारी बहुत अधिक ममता है। इसी से हमें जो क्लेश उठाने पड़े हैं उनको भूल कर, और उनके कारण उत्पन्न हुए क्रोध को रोक कर, हम शान्ति-स्थापन करने की इच्छा रखते हैं। तब कृष्ण भीम को शान्त करके कहने लगे :- हे वृकोदर ! हम भूले नहीं-हमने तुम्हें अच्छी तरह पहचाना है। तुम्हारी बात का ठीक मतलब जानने के लिए हमने तुमसे वैसा कहा । उसे तुम हँसी समझो। तुमने अपने लिए जो कुछ कहा उसकी भी अपेक्षा हम तुम्हारे प्रभाव को अधिक जानते हैं। हे भीम ! यद्यपि हम सन्धि-स्थापन करने जाते हैं, और उसके लिए जहाँ तक हमसे हो सकेगा, कोई बात उठा न रक्खेंगे।। तथापि मनुष्य की चेष्टा की अपेक्षा दैव ही को प्रधान समझना चाहिए । इससे हमारे सफल-मनोरथ होने में बहुत सन्देह है। कौरव लोग यदि हमारी बात न मानेंगे तो भयङ्कर युद्ध हुए बिना न रहेगा। फिर कोई बात ऐसी नहीं जिससे युद्ध का निवारण हो सके। इस युद्ध में हम लोगों को तुम्हारे ही बल और तुम्हारे ही पराक्रम पर पूरा पूरा भरोसा रखना होगा । इसी से तुम्हारी नम्रता को देख कर हमने तुम्हारे तेज को प्रज्वलित करना उचित समझा।
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