पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/२००

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१७४ - सचित्र महाभारत [ दूसरा खण्ड करते क्या तुम्हें लज्जा नहीं आती ? पाण्डव लोग जितने बली हैं तुम उसका एक सोलहवाँ हिस्सा भी नहीं। उन्होंने जैसे बड़े बड़े दुष्कर काम किये हैं, वैसे कौन से काम तुमने किये हैं ? विराट नगर में जब अर्जुन ने तुम्हारे प्यारे भाई को मारा तब तुम क्या करते थे ? जब अर्जुन ने सारे कौरवों को अचेत करके उनके कपड़े-लत्ते छीन लिये तब क्या तुम वहाँ पर न थे ? इस समय तुम उन्मत्त बैल की तरह डकार रहे हो और व्यर्थ अपनी बहादुरी बघार रहे हो। किन्तु, घोष-यात्रा के समय जब गन्धर्व-गण कौरवों की दुर्दशा करने लगे तब तुम्हारे वहाँ उपस्थित रहते भी क्यों पाण्डवों को उनकी रक्षा के लिए आना पड़ा ? तुम जो बार बार गर्व से भरी हुई मिथ्या बाते कहते हो और बार बार लड़ने की उत्तेजना देते हो उसी से कौरव लोग मोहान्ध हो गये हैं, और उसी से ये सब दुष्कर्म करने के लिए उन्हें साहस हुआ है। तुम्हारे ही दोष से यह महा अनीति हो रही है । तुम जब ब्राह्मण बन कर परशुराम के पास अस्त्र-विद्या सीखने गये थे तभी उनके शाप से तुम्हारी शिक्षा का फल नष्ट हो गया था। तुम्हारे सदृश धर्मभ्रष्ट मनुष्य की सहायता का भरोसा करने से इस घोर युद्ध में कौरव लोग जरूर ही काल . का ग्रास हो जायेंगे। भीष्म के इन वाक्यरूपी बाणों ने कर्ण को बहुत ही सन्तप्त किया। उन्होंने अपने सारे अस्त्र- शस्त्र फेंक दिये और बोले :- हे पितामह ! आपने पाण्डवों के गुणों का जैसा वर्णन किया वे वैसे ही या उससे भी अधिक हो सकते हैं। परन्तु आपने इस सभा में जो कठोर वाक्य हमें कहे हैं उनका फल सुन लीजिए । देखिए, हमने अपने सारे अस्त्र त्याग दिये । जब तक आप जीत रहेगे, हम इनको छाएँगे भी नहीं। धृतराष्ट्र के पत्र जानते हैं, हम कभी धर्मभ्रष्ट नहीं हुए और लेशमात्र भी पाप हमने नहीं किया। हमने हमेशा ही राजा धृतराष्ट्र के मन का काम करने की चेष्टा की है-जो कुछ उन्हें पसन्द था वही हमने हमेशा किया है। युद्ध में आपके मारे जाने पर हम अपना प्रभाव और पराक्रम दिखला कर कौरवों की रक्षा करेंगे। यह कह कर महाधनुर्धारी कर्ण तुरन्त सभा से निकल कर अपने घर चल दिये । उनके चले जाने पर फिर सब लोग तरह तरह की बातें कह कर दुर्योधन को समझाने लगे। परन्तु, दुर्योधन ने किसी की न सुनी। वह मन-मलीन हुए चुपचाप बैठे रहे । अन्त में बहुत उदास होकर धृतराष्ट्र ने उस दिन की सभा भंग कर दी। इस सभा का सब वृत्तान्त सुनने पर युधिष्ठिर ने कृष्ण से कहा :- हे कृष्ण ! इस अवसर पर आपकी सलाह के बिना हमारा काम नहीं चल सकता । आपत्ति- काल आने पर जैसे आप यादवों की रक्षा करते आये हैं, वैसे ही आप इस समय हमारी भी रक्षा कीजिए। कृष्ण ने कहा :-महाराज ! हम तो, देखिए, आपके सामने ही उपस्थित हैं । जो आज्ञा श्राप करेंगे वही करने को तैयार हैं। युधिष्ठिर ने कहा :- सञ्जय से जो कुछ हम लोगों ने सुना, उससे धृतराष्ट्र के मन की सच्ची सच्ची बात साफ साफ मालूम होती है। वे लोग हमें राज्य दिये बिना ही शान्त रखना चाहते हैं। हमें अब तक यही विश्वास था कि निश्चित समय बीत जाने पर धृतराष्ट्र हम लोगों को अपना राज्य ज़रूर लौटा देंगे। इसी से हमने प्रतिज्ञा भङ्ग नहीं की और अनेक प्रकार के कष्ट सहने पर भी धीरज नहीं छोड़ा। इस समय अपने कुचाली पुत्र के वशीभूत होकर हमारे साथ वे अन्याय करने पर उतारू हुए हैं। किन्तु हे जनार्दन ! हम अपनी माता और अपने भाइयों को और अधिक कष्ट देने का कोई कारण नहीं देखते । जिसमें कुल-क्षय न हो, इसलिए अन्त में पाँच गाँव ही लेकर इस विवाद को शान्त करने