पहला खण्ड] पाण्डवों का प्रकट होना और सलाह करना १६७ हे ब्राह्मण ! यह बात तमाम दुनिया जानती है कि जुए में हार कर पाण्डव लोग वनवास करने को लाचार हुए थे । इसलिए इसे बार बार कहने की जरूरत नहीं । इस समय अवधि पूरी होने के पहले ही प्रतिज्ञा भंग करके उन्होंने अपने को प्रकट किया है। मत्स्य तथा पाञ्चाल लोगों की सहायता पाकर वे फूले नहीं समाते । पर याद रक्खें, हम लोगों को डराने की चेष्टा करना वृथा है । डर कर हम एक पग भी भूमि न देंगे । युधिष्ठिर यदि धर्म से राज्य लेना चाहते हैं तो निश्चित नियम के अनुसार उन्हें बारह वर्ष फिर वनवास करना चाहिए। क्योंकि समय के पहले ही वे प्रकट हो गये है। समय पूरा होने पर महाराज दुर्योधन उन्हें ज़रूर ही आश्रय देंगे। पर यदि धर्म की परवा न करके मूर्खता के कारण वे लड़ना चाहते हैं तो हमारी बात याद करकं जरूर पछतायेंगे। भीष्म ने कहा :-हे कर्ण ! तुम बातों में सदा ही बड़ी वीरता दिखलाते हो । पर क्या तुम्हें याद नहीं कि अर्जुन ने अभी हाल ही में हमारे छ: महारथियों को लड़ाई में हराया था ? इस ब्राह्मण की बात मान कर समय रहते ही यदि हम लोग मेल न कर लेंगे तो लड़ाई के मैदान में हमें निश्चय ही धूल फाँकनी पड़ेगी। भीष्म को विरक्त देख कर उनको प्रसन्न करने के लिए धृतराष्ट्र ने उनकी बात का अनुमोदन किया और कर्ण को डाँट कर कहने लगे :- हे कर्ण ! भीष्म ने जो कुछ कहा उसी से हम लोगों की, पाण्डवों की और सब क्षत्रियों की भलाई है। इसलिए हम उनके कहने के अनुसार सञ्जय को पाण्डवों के पास सन्धिस्थापन करने के लिए भेजेंगे। यह कह कर धृतराष्ट्र ने द्रुपद-पुरोहित को यथोचित सत्कार के बाद बिदा किया। फिर सभा में सञ्जय को बुला कर उन्होंने कहा :- हे सञ्जय ! तुम इस समय उपप्लव्य नगर में पाण्डवों के पास जाव। वहाँ जा कर पहले उनकी कुशल पूछना । पाण्डव लोग बहुत भल आदमी है । छल-कपट करना वे नहीं जानते । इतने दु:ख सह कर भी उन्होंने हम पर क्रोध नहीं किया। अपने सुख की अपेक्षा धर्म को ही वे बड़ा समझते हैं। मन्द-बुद्धि दुर्योधन और क्षुद्र-हृदय कर्ण के सिवा हम सब लोग उनसे बड़े प्रसन्न हैं । इसलिए इन सब बातों को अच्छी तरह समझ कर उपयुक्त वाक्यों में युधिष्ठिर से कहना कि हम सन्धि करना चाहते हैं। हे सञ्जय ! दोनों ओर इतनी सेना इकट्ठी हुई है कि उसका स्मरण करके हमें बड़ा डर लगता है । इसलिए समझ बूझ कर ऐसा प्रस्ताव करना जिसमें हम लोग इस घोर विपद से बच जायें । __महाराज धृतराष्ट्र का अभिप्राय जान कर और उनकी आज्ञा पाकर सञ्जय ने मत्स्यदेश की ओर प्रस्थान किया। प्रथम खण्ड समाप्त।
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