पहला खण्ड ] पाण्डवों का प्रकट होना और सलाह करना १६५ कृष्ण ने प्रसन्नतापूर्वक उनकी बात मान ली । उन्होंने कहा :- हे अर्जुन ! तुम हमसे सब कुछ मांग सकते हो। हमारे पास ऐसी कोई चीज़ नहीं जिसे हम तुम्हें न दे सकते हों। इसके बाद बहुत से भोज, वृष्णि और दाशार्ह वीरों को साथ लेकर दोनों मित्र युधिष्ठिर के पास आये। ___ इसी समय मद्र देश के राजा महाबली शल्य ने दूत के द्वारा सुना कि कौरवों और पाण्डव में युद्ध होनेवाला है। इसलिए वे अपने पुत्रों और बड़ी भारी सेना को साथ लेकर पाण्डवों की सहायता के लिए विराट-नगरी को रवाना हुए। दुर्योधन को ज्यों ही अपने मामा के चलने का हाल मालूम हुआ त्यों ही उन्होंने, उनको प्रसन्न करके अपना काम निकालने के लिए, रास्ते में जगह जगह ठहरने के लिए घर बनवा दिये और उनमें तरह तरह की खाने, पीने, आराम करने और मन बहलाने की चीजें रखवा दी। शत्यराज सुखपूर्वक विश्राम करते हुए धीरे धीरे आगे बढ़ने लगे। उन्होंने समझा कि यह आदर-सत्कार राजा युधिष्ठिर ही की ओर से हो रहा है। एक बार बहुत ही अच्छे बने हुए एक घर की कारीगरी पर प्रसन्न होकर उन्होंने नौकरों से कहा :- ___राजा युधिष्ठिर के जिस कारीगर ने यह मण्डप बनाया है उसे हमारे पास ले पात्रो। हम धर्मराज की आज्ञा लेकर उसे इनाम देंगे। युधिष्ठिर का नाम सुन कर नौकरों को आश्चर्य हुआ । उन्होंने शल्य की आज्ञा दुर्योधन से कह सुनाई । इस समय दुर्योधन गुप्त रूप में वहीं विद्यमान थे। अतएव मद्रराज के सामने पाकर उन्होंने सब सच्चा सच्चा हाल उनसे कह सुनाया। यह जान कर कि दुर्योधन ही ने ये विश्राम घर बनवाये हैं शल्यराज बड़े प्रसन्न हुए और उनसे कहा कि जो वर चाहो माँग लो। दुर्योधन बोले :- हे मामा ! यदि आप प्रसन्न हैं तो इस युद्ध में हमारे सेनापति बनिए । शल्य ने -तथास्तु ! कहा । वे बोले :- इस समय तो तुम अपने घर जााो । युधिष्ठिर से मिल कर हम तुम्हारे पास आयेंगे। तब मद्रराज मत्स्यदेश को गये और छावनी के भीतर जाकर पाण्डवों से मिले । पाण्डवों ने रीति के अनुसार पाद्य, अध्य॑ और गोदान देकर उनका सत्कार किया। शल्य ने पाण्डवों की पूजा ग्रहण करके उनको आलिंगन किया । जब सब लोग बैठ गये तब शल्यराज ने अपने आने का हाल, दोधन की शुश्रूषा और उनको वर देने की सब बातें श्रादि से अन्त तक युधिष्ठिर से कह सुनाई। अन्त में उन्होंने कहा :- हे धर्मराज ! भाइयों और द्रौपदी के साथ असह्य क्लेश सह कर और बड़े बड़े काम करके तुम सब सङ्कटों से धर्म के अनुसार पार हो गये। अब आशा है कि शत्रुओं को हरा कर फिर सुख- भोग कर सकोगे। युधिष्ठिर ने प्रसन्न होकर कहा :- हे मामा ! दुर्योधन ने आपकी जो खातिरदारी की उसके बदले में उनकी सहायता करना आपने जो स्वीकार किया है सो उचित ही किया है। किन्तु दुर्योधन ने छल करके हम लोगों को आपकी सहायता से वञ्चित किया है। इसलिए आपको हमारे कहने से, अनुचित होने पर भी, एक काम करना पड़ेगा। यदि युद्ध में किसी समय कर्ण सेनापति बनाये जाये तो निश्चय ही अर्जुन के साथ उनका युद्ध होगा। उस समय कर्ण के सारथि बन कर और उनके युद्ध में विघ्न डाल कर आपको अर्जुन की रक्षा करनी होगी।
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