१४२ सचित्र महाभारत [पहला खण्ड द्रौपदी से सब हाल सुन कर सुदेष्णा क्रोध से जल उठी। वह बाली-मरी आश्रित स्त्री के साथ ऐसा बुरा व्यवहार ! कीचक का यह उद्धृतपन ! बतलाओ उस क्या दण्ड दिया जाय ? द्रौपदी ने कहा :-हमारे अपमान से जिन गन्धर्वो का अपमान हुआ है, वहीं यथासमम इस दुरात्मा को उचित दण्ड देंगे। ____ इसके बाद मन ही मन कीचक की मृत्युकामना करती हुई द्रौपदी अपने घर गई । वहाँ उसने स्नान किया और कपडे धाय । फिर रात रात यह सोचने लगी कि इस समय क्या करना चाहिए। अन्त में उसने एक बात करने का निश्चय किया । रात को वह बिछौन से उठ कर भीमसन के घर गई। शाल के बड़े भारी वृक्ष से जैसे लता लिपट जाती है वैसे ही द्रौपदी सोते हुए भीमसेन के शरीर से लिपट गई और वीणा के समान मधुर कण्ठ से बाली :- हे नाथ ! बड़े आश्चर्य की बात है ! मालूम होता है कि तुम प्राण छोड़ कर हमेशा के लिए सा गय हो । यदि ऐसा न होता तो तुम्हारं जीत जी तुम्हारी स्त्री का अपमान करकं दुष्ट कीचक अब तक कैसे जीना रहता। भीमसन उठ कर पलँग पर बैठ गये और कहने लगे :- तुम इस समय हमारे पास क्यों आई ? तुम दुबली और पाली पड़ गई हो। तुम इतनी दुखी क्या हो ? अपना हाल बहुत जल्द कह कर किसी के जागने के पहले अपने घर चली जाव । हम अवश्य ही तुम्हाग दुःग्य दूर करेंगे। द्रौपदी ने कहा :-ई भीम ! जिसके पति गजा युधिष्ठिर हा उस सुख कहाँ ? तुम भी मेरे दुःखों का जान कर क्यों इस तरह पूछने हो ? कौरवों की सभा में और वनवास के समय जो दुःख मैंन भागे हैं वे अब तक मरं हृदय का जला रहे हैं। कोई और राजकुमारी इतने अमह्य दुख भाग कर क्या जीवित रह सकती थी ? अब दुष्ट कीचक ने सबके सामने मुझं लात मारी। तब भी तुम मेरे दुःखों की परवा नहीं करते । अब मैं जी कर क्या करूँगी ? भीमसन ने कहा :-प्रिय ! तुम्हें सचमुच ही बड़ा दुख मिला। हमारं बाहुबल और अर्जुन के गाण्डीव का धिक्कार है। हाय ! जिस समय सभा में दुरात्मा कीचक ने तुम्हारा अपमान किया उमी समय ऐश्वर्य के मद से मत्त उस पाखण्डी के सिर का हम अपने पाद-प्रहार से चूर कर डालते अथवा सार मत्स्यदेश का नाश कर देते। पर युधिष्ठिर ने इशारे से हमें रोक दिया। क्या कहें, धर्मराज समय देख कर ही काम करना अच्छा समझते हैं। किन्तु जो जो अपमान तुम्हें सहने पड़े हैं वे हमारे हृदय में काँटे की तरह खटक रहे हैं। द्रौपदी बोली :-जैसा बुग व्यवहार मरं साथ किया गया है उससे यदि तुम्हें क्लेश होता हो तो अपने उस जुआरी भाई की बात तुम न मानो । यदि धर्मराज धन से वर्षों तक प्रतिदिन सुबह शाम जुआ खेलते तो भी हमारा इतना बड़ा खजाना खाली न होता। जुए का ऐसा कौन शौकीन होगा जो भाई और त्री को दाँव पर रक्खे या एक बार शिक्षा पाकर भी वनवास जाने की प्रतिज्ञा को दाँव में लगा कर खेले ? पर जुए के नशे में चूर होकर पागल की तरह युधिष्ठिर ने सब कुछ खो दिया और अब बीती हुई बातों को मन ही मन सोचते हुए मूढां की तरह चुपचाप बैठे हैं। तुम लोग अत्यन्त नीच और अनुचित काम करके अपने जीवन की रक्षा कर रहे हो। यह सब दुर्दशा देख कर मैं कैसे सुखी रह सकती हूँ? इससे बढ़ कर दुख की बात और क्या हो सकती है कि तुम लोगों के जीवित रहते दुख पर दुख भोगने से मेरा शरीर सूखता चला जाय ! आर्य्या कुन्ती के सिवा मैंने किसी की सेवा पहले नहीं की थी। अब मैं सुदेष्णा के पीछे पीछे फिरती हूँ और उसके लिए चन्दन घिसती हूँ। मैं कौरवों के घर में किसी से भी नहीं डरती थी। पर यहाँ दासी के रूप में रह कर विराट से बे-तरह डरा करती हूँ। चन्दन आदि पदार्थ अच्छी तरह
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