पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/१५९

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१३५ पहला खरंड] वनवास के बाद अज्ञात वास का उद्योग बिदा होते समय ब्राह्मणों में श्रेष्ठ पुरोहित धौम्य ने सबको स्नेह-पूर्ण वचनों से इस प्रकार उपदेश दिया :- हे पाण्डव ! तुम लोग लोक-व्यवहार की सारी बातें तो जानते हो। किन्तु यह नहीं जानते कि राजा के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए । चाहे तुम्हारा सम्मान हो चाहे अपमान, एक वर्ष तक तुम्हें राजभवन में रहना ही पड़ेगा। इसलिए जैसे बने राजा को सन्तुष्ट रखने की चेष्टा करना तुम्हारे लिए बहुत जरूरी है । बिना पूछे राजा को काई उपदेश न देना। राजभवन की कोई गुप्त बात प्रकट करने की चेष्टा न करना । यदि कोई छिपी हुई बात मालूम हो जाय तो भी न कहना । महागज तुम्हारा चाहे जितना प्यार करें, उनकी आज्ञा बिना कभी उनकी सवारी, पलँग या चौकी पर न बैठना। अपनी हैसियत के बाहर कोई काम न करना । राज-सभा में उचित स्थान पर चुपचाप बैठना। हाथ, पैर आदि न हिलाना और न ज़ार से बोलना । यदि राजा तुम पर प्रसन्नता प्रकट करें तो ज़रूर कृतज्ञ होना। यदि वे अप्रसन्न हों तो भी उनसे किसी तरह का द्वेष न करना और न कुछ कहना । इस तरह के व्यवहार से वे फिर प्रसन्न हो जायँगे । राजों के अन्त:पुर में बड़े बड़े खोटे काम होते हैं। इसलिए छिप छिपे द्रौपदी पर सदा निगाह रखना। युधिष्ठिर ने कहा :-हे ब्राह्मण-श्रेष्ठ ! आपके सिवा ऐसा हितकर और समयोपयोगी उपदेश और कोई न दे सकता था। अब ऐसा अनुष्ठान कीजिए जिसमें हमारा मङ्गल हो। तब जलती हुई अग्नि में होम करकं द्रोपदी-समंत पाण्डव सबकी प्रदक्षिणा करकं चल दिये । अग्निहोत्र लंकर धौम्य पाञ्चाल-नगर गये और वहाँ उसकी रक्षा करने लगे। इन्द्रसन आदि नौकरों ने घोड़े, रथ आदि लेकर यादवों का आश्रय लिया। पाण्डवों ने सिर्फ अस्त्र-शस्त्र साथ लेकर पैदल ही मत्स्यराज्य की ओर प्रस्थान किया। कालिन्दी नदी के दक्षिणी किनार किनार व चलने लगे। कभी वे पहाड़ की खाहों में ठहरत और कभी घने जंगलों में । पाञ्चाल देश उनके उत्तर तरफ़ रह गया । इस तरह धीरे धीरे वे मत्स्य देश में जा पहुँचे । रास्ते की दशा और चारों ओर खत देखकर द्रौपदी कहने लगी :- ___ हे धर्मराज ! मालूम होता है कि विराट नगरी अभी बहुत दूर है। मैं भी बहुत थक गई हूँ। इसलिए आज रात को यहीं ठहरिए। युधिष्ठिर ने कहा :-हे अर्जुन ! तुम द्रौपदी को सँभाल कर ले चलो। जब जंगलों को पार कर आय हैं तब एकदम राजधानी पहुँच कर ही ठहरना अच्छा है।। ___ तब हाथी के समान बलवान् अर्जुन ने द्रौपदी को उठा लिया और जल्दी जल्दी चल कर विराट राजधानी के पास उन्हें उतार दिया। इसके बाद सब लोग सलाह करने लगे कि नगर में किस तरह प्रवेश करना चाहिए। युधिष्ठिर ने कहा :-हं भाई ! हम लोगों ने गुप्त वंश धारण करने का इरादा किया है। इससे हथियारों को साथ ले चलना ठीक नहीं। विशेष करके अर्जुन के गाण्डीव को तो सभी पहचानते हैं। इसलिए एक वर्ष के लिए सब हथियारों को किसी ऐसी जगह रख देना चाहिए जहाँ से उठ जाने का डर न हो। अर्जुन ने कहा :-महाराज ! इस पहाड़ की चोटी पर श्मशान है। उसके पास एक शमी वृक्ष दिखाई देता है । उस पर चढ़ना कठिन काम है । यदि कपड़े में अच्छी तरह लपेट कर हम लोग अपने हथियार उसकी डाल पर रख दें तो हमें कोई न देख पायेगा और भविष्यत् में भी इधर से किसी के आने जाने की सम्भावना नहीं । अर्जुन की बात सुन कर सब लोग वहाँ हथियार रखने को तैयार हुए। उन्होंने अपने अपने धनुष की डोरी खोल दी और उसके साथ तरकश, तलवार और दूसरे हथियार बाँध कर