पहला खण्ड वनवास के बाद अज्ञात वास का उद्योग १३३ __धीरे धीरे वनवास के बारह वर्ष बीत गये । सत्यप्रतिज्ञ पाण्डव लोग तेरहवें वर्ष के अज्ञात वास की तैयारी करने लगे । जब समय आ गया तब धर्मराज ने अपने साथ रहनेवाले ब्राह्मणों से आज्ञा मांगी। वे हाथ जोड़ कर कहने लगे :--- हे मुनिगण ! हमने सत्य की रक्षा के लिए बारह वर्ष बड़े कष्ट से वनवास किया। अब अज्ञात वास का समय आ गया है। उसके लिए बड़े सोच विचार से काम करना होगा। क्योंकि, यदि कौरव लोग हमारा पता पा जायँगे तो, शर्त के अनुसार, हमें फिर वनवास करना पड़ेगा। कौरव लोग हमसे बड़ी शत्रुता रखते हैं । उनकी शत्रता ने जड़ पकड़ ली है। हमारा पता लगाने की वे जी जान से कोशिश करेंगे। इसमें जरा भी सन्देह नहीं । हाय ! क्या हम कभी अपना गज्य पाकर आप लोगों का उपयुक्त सत्कार कर सकेंगे? यह कह कर आँखों में आँसू भरे हुए युधिष्ठिर न ब्राह्मणों में बिदा माँगी। ब्राह्मणों ने अनेक प्रकार से युधिष्ठिर का समझाया और ढाढम दिया। और, फिर, आशीर्वाद देकर जाने की आज्ञा दी। पुरोहित धौम्य के साथ पाण्डव लोग वहाँ से एक सुनसान जगह पहुँचे और सलाह करने के लिए बैठ गये। युधिष्ठिर ने कहा :-भाई ! एक ऐसा गूढ और रमणीक स्थान हूँढ़ना चाहिए जहाँ हम लोग स्वतन्त्रतापूर्वक रह सकें और हमारे शत्र हमाग पता न पावें । - अर्जुन ने कहा :- महागज ! कुरु-मण्डल के चारों तरफ़ पाञ्चाल, चंदि, मत्स्य आदि कितने ही राज्य ऐसे हैं जहाँ के राजा हमारे मित्र हैं-हमसे बन्धुभाव रखते हैं। उनमें से किसी भी एक गज्य में हम गुप्त-भाव से रह सकेंगे। युधिष्ठिर ने कहा :-हे अर्जुन ! इनमें से मत्स्यराज ही हम पसन्द करते हैं। हमारे पिता राजा विराट के मित्र थे। विराट-नरेश हम लोगों की सदा ही भलाई चाहते हैं। वे वृद्ध, धर्मात्मा और दानी हैं। उनके यहाँ यदि हम लोगों में से हर एक, एक एक उपयुक्त काम पर नियुक्त हो जाये तो निश्चय ही एक वर्ष वहाँ ब-खटके काट सकेंगे। अर्जुन ने कहा :-हाय ! आप सदा सुख में पले हैं और राज्य किया है। अब दूसरे के अधीन आप कैसे काम कर सकेंगे। युधिष्ठिर ने कहा :-भाई ! घबराओ नहीं। हमने जिस काम के करने का निश्चय किया है उसे सुनो। हम अपना नाम कङ्क रक्खेगे और जुआरी ब्राह्मण के वेश में चौपड़, हाथी-दाँत की गोटें, सुनहले पाँसे हाथ में लेकर विराटराज के सभासद बनने की प्रार्थना करेंगे। यदि वे हमाग विशेप हाल पूछेगे तो कहेंगे कि हम पहले राजा युधिष्ठिर के प्रिय मित्र थे। इस काम से हम बिना किसी क्लश के राजा का मन बहला सकेंगे । भीम ! अब तुम बताओ, कौन काम करके समय बिताओगे ? भीमसेन ने कहा :-हे धर्मराज! हमारा इरादा है कि हम अपना नाम वल्लभ रक्खें और अपने को रसोइया बतावें । रसोई बनाने में हम विशेष चतुर हैं। विराट-राज के यहाँ इस समय जितने नौकर हैं हम निश्चय ही उन सबसे अच्छा भोजन बना कर राजा को प्रसन्न कर सकेंगे। इसके सिवा अखाड़े में जब हम अपने बाहुबल का परिचय देंगे तब सब लोग हमारा सम्मान करने लगेंगे-इसमें कुछ भी सन्देह नहीं । हाल पूछने पर हम भी कहेंगे कि हम राजा युधिष्ठिर के रसोइया और पहलवान थे। हे राजन् ! इस तरह हम बिना किसी विन-बाधा के समय बिता सकेंगे। तब युधिष्ठिर अर्जुन की तरफ इशारा करके बोले :- जो वीर आग की तरह तेजस्वी है, जिसकी बाँहों पर धनुष की डोरी के चिह्न हैं, वह अर्जुन कौन सा गुप्त वेश धारण करेगा ?
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