सचित्र महाभारत [ पहलो खण्ड तरह मस्त हाथी पर केवल डण्डे से आक्रमण करने का इरादा किया है । जब तुम क्रुद्ध भीम और अर्जुन को देखोगे तब तुम्हें मालूम होगा कि सुख से सोये हुए सिंह की देह पर अथवा तीक्ष्ण विषवाले काले साँप की पूंछ पर बिना समझे बूझे तुमने पैर रख दिया है। ____जयद्रथ बोल :-हे द्रौपदी ! तुम बातें बना कर या डरा कर हमें रोक नहीं सकतीं । हमें कम शूरवीर न समझा; पाण्डवों से हम ज़रा भी नहीं डरते। अब यदि तुम हमारे रथ पर या हाथी पर चुपचाप न चढ़ोगी तो हम तुम्हें ज़बरदस्ती पकड़ ले जायेंगे। द्रौपदी ने कहा :-क्या तुमने मुझे अबला समझ बस में करने का इरादा किया है ? यह तुम्हारी भूल है। मुझे अबला मत समझो । मेरी रक्षा करनेवाले महाबली हैं। तुम मुझे धमकी देकर नहीं डरा सकने । रे नीच ! जिस समय हाथ में गदा लिये हुए बड़े वेग से भीम आवेंगे उस समय सदा के लिए तुम्हें दुःख सागर में गोता लगाना पड़ेगा। जब महावीर अर्जुन के गाण्डीव से निकले हुए कठिन बाण तुम्हारी छाती छदेंगे तब तुम्हारी क्या दशा होगी-क्या इसका भी विचार किया है ? द्रौपदी जब ये बातें कह रही थी तब जयद्रथ धीरे धीरे उसकी तरफ बढ़ रहा था। द्रौपदी नं बार बार उसे अपना शरीर छूने से रोका और पुगेहित धौम्य को कातर स्वर से बुलाने लगी। पर दुरात्मा जयद्रथ ने उसकी बात पर ध्यान न दिया और उस रोती हुई स्त्री की चादर पकड़ ली। तब द्रौपदी ने जल्दी से अपना वस्त्र खींच लिया। इससे जयद्रथ, वायु से टूटे हुए पड़ की तरह, जमीन पर गिर पड़ा । परन्तु वह तुरन्त उठ बैठा और द्रौपदी को बड़े जोर से खींच कर रथ पर चढ़ा लिया । इस समय महात्मा धौम्य आकर कहने लगे :- रे पापी ! क्षत्रियों के धर्म के अनुसार युद्र में पाण्डवों को तू पहले हरा ले तब द्रौपदी का ले जाना । नहीं तो महात्मा पाण्डवों के आने पर तुझं इस पाप का फल शीघ्र ही मिल जायगा। यह देख कर कि हमारी बात का जयद्रथ पर कुछ भी असर न हुआ धौम्य इसी तरह कहन हुए पैदल सेना के साथ जयद्रथ के रथ के पीछे पीछे चले। इधर पाण्डव लांग अनेक वनों में घूमते-घाम और मृग आदि इकट्ठा करते हुए सब एक ही साथ आश्रम की ओर लौटे । युधिष्ठिर कहने लगे :- आज और शिकार खेलने की जरूरत नहीं। तरह तरह के अशकुन हो रहे हैं। इससे हमारा मन चचल हो रहा है। कौरवों ने आश्रम में आकर कोई उपद्रव तो नहीं मचाया ? चलो, जल्दी चल कर देखें। सब लोग इस तरह मन में सन्दह करते हुए जल्दी जल्दी आश्रम की ओर दौड़। काम्यक वन में घुसते ही उन्होंने देखा कि द्रौपदी की दासी धूल में लोटनी हुई रो रही है। यह देख कर सारथि इन्द्रसेन रथ से तुरंन्त कूद पड़ा और जल्दी जल्दी उसके पास जाकर कातर कण्ठ से पूछा :- ____क्यों तुम ज़मीन पर पड़ी रो रही हो ? क्यों तुम्हारा मुँह फीका पड़ गया है और सूख गया है ? किसी दुष्ट ने राजपुत्री द्रौपदी का अपमान तो नहीं किया ? दासी ने कहा :-हे सारथि ! इन्द्र के समान तेजस्वी पाण्डवों की परवा न करके पापी जयद्रथ द्रौपदी को हर ले गया। वे लोग इसी रास्ते से गये हैं। अभी राजपुत्री बहुत दूर न गई होंगी; क्योंकि इस टूटी हुई डाल के पत्ते अभी तक नहीं मुरझाये । इसलिए अब देर न करो। शीघ्र ही इस मार्ग से उनका पीछा करो। इन्द्रसेन ने कहा :-डरने की कोई बात नहीं । दुजय पाण्डवों की प्रियतमा द्रौपदी अनाथ
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