१२६ सचित्र महाभारत [पहला खण्ड धर्मराज ने कहा :-हे दूत ! यह बड़े सौभाग्य की बात है कि पूर्व-पुरुषों की कीर्ति बढ़ानेवाले महाराज दुर्योधन इतने बड़े यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं । किन्तु हम लोग वनवाम की प्रतिज्ञा में बँधे हुए हैं; इस कारण नगर में नहीं जा सकते । भीमसेन से न रहा गया । वे बोल उठे : - हे दूत ! तुम दुर्योधन से कहना कि प्रतिज्ञा किये हुए तेरह वर्ष बीन जाने पर जिम समय महाराज युधिष्ठिर युद्ध-यज्ञ की शस्त्राग्नि में उन्हें डालेंगे उसी समय हम लोग उनसे मिलेंगे। इसके बाद जगह जगह के राजा और ब्राह्मण लोग यज्ञ के लिए हस्तिनापुर आने लगे । धृतराष्ट्र, विदुर, भीष्म, द्रोण, कर्ण और यशस्विनी गान्धारी ने बड़ी प्रसन्नता से सबका आदर-सत्कार किया । दुर्योधन ने सबके लिए अच्छे अच्छे घर बनवाये और विदुर ने खाने पीने आदि का प्रवन्ध किया । यथा- समय सब काम बड़ी धूमधाम के साथ निर्विन समाप्त हुआ। यज्ञ-भूमि से दुर्योधन के निकलने का समय आने पर स्तुति होने लगी, स्तोत्रपाठ होने लगा, चन्दन का चूर्गा और खीलें उन पर फेंकी जाने लगीं। शुभ घड़ी में दुर्योधन ने यज्ञशाला छोड़ी और नगर में आये । वहाँ उन्होंने अपने माता-पिता के पैर छाए और गुरुजनों को प्रणाम करके ऊँचे सिंहासन पर जा बैठे । महावीर कर्ण ने खड़े होकर कहा :- ___ महाराज ! आज मौभाग्य से बिना किमी विन के यज्ञ समाप्त हो गया और सारे गजा लोगों ने आपका सत्कार भी किया । परन्तु जिस दिन पाण्डवों का नाश करके आप धूमधाम से राजसूय यज्ञ करेंगे उसी दिन मैं आपका यथेष्ट सत्कार करूँगा। कर्ण की बात सुनकर दुर्योधन अत्यन्त प्रसन्न हुए। उन्होंने कर्ण को गले से लगा लिया । फिर व पाण्डवों को हराने के सम्बन्ध में अपने भाइयों से तरह तरह की बातचीत करने लगे। किसी ने कहा, पाण्डवों को हराना कौन बड़ी बात है। किसी ने कहा, अर्जुन को परास्त करना असाध्य है। तब सबको उत्साहित करके कर्ण ने प्रतिज्ञा की :- हे कौरव लोग। सुनो। जब तक हम अर्जन को न मारेंगे तब तक आसुर व्रत धारण करके मद्य-मांस को हाथ न लगावेंगे। व्रत के दिनों में हमसे जो कुछ कोई माँगेगा हम वही देंगे। कर्ण की अर्जुन-वध-सम्बन्धिनी प्रतिज्ञा सुन कर सबको सन्तोष हुआ। सब लोग प्रसन्न होकर अपने अपने घर गये । दुर्योधन को विश्वास था कि किसी न किसी दिन पाण्डवों से ज़रूर ही युद्ध होगा। इस कारण उस दिन से वे अपने अधीन राजों को सब तरह से सन्तुष्ट करने और अपने पक्ष में रखने की चेष्टा करने लगे। दुर्योधन का यज्ञ करना और कर्ण की प्रतिज्ञा सुन कर पाण्डवों को बड़ी चिन्ता हुई। वे द्वैतवन से काम्यक वन चले गये और वहीं रहने लगे। उस समय देवराज इन्द्र को पाण्डवों पर बड़ी बड़ी दया आई । अर्जुन से उन्होंने जो प्रतिज्ञा की थी वह उन्हें याद आ गई। अतएव कर्ण के व्रत की बात सोच कर इन्द्र ने कर्ण का कभी न टूटनेवाला कवच ले लेने का इरादा किया। उन्होंने कहा, अच्छा हुआ जो कर्ण ने माँगने पर सब कुछ दे डालने का व्रत किया। उनसे कवच छीन लेने का यह अच्छा मौका है। इसलिए कर्ण के पास ब्राह्मण के वेश में भीख मांगने के लिए जाने का सङ्कल्प इन्द्र ने किया। सूर्य्यदेव इस बात को जान गये । इस कारण अपने वर-पुत्र को होशियार करने के लिए वे उसके पास जाकर बोले :- हे पुत्र ! जन्म के साथ ही प्राप्त हुआ तुम्हारा कवच छीनने के लिए इन्द्र उद्योग कर रहे हैं। व्रत के कारण इस समय तुम किसी को भी विमुख नहीं लौटाते । किन्तु इसे इन्द्र को दे देना अच्छा नहीं।
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