पहला खण्ड ] धृतराष्ट्र के पुत्रों का राज्य करना १२५ इस तरह आज्ञा पाकर महाबली कर्ण, अच्छे मुहूर्त में, धनुप-बाण लंकर और रथ पर सवार होकर चतुरङ्गिनी सेना के साथ चले। पहले उन्होंने द्रपदराज को कैद करके उनसे एक ग्थ लिया। फिर, उत्तर की ओर जाकर, भगदत्त, आदि राजों को अपने वश में किया। फिर, हिमालय के पहाड़ी राजेां को अपने अधीन किया। इसके बाद पूर्व दिशा की ओर जाकर अङ्ग, वङ्ग, कलिङ्ग, मगध, मिथिला आदि देशों को कुरुराज्य में मिलाया। फिर, दक्षिण में युद्ध करके वहाँ के राजा को जीता। अन्त को पश्चिम दिशा में अवन्ति देश के राजा और यादवों के साथ संधि की। इस तरह थाई ही दिनों में चारों दिशाओं के गजों को हरा कर और उनसे बहुत सा धन लेकर कर्ण हस्तिनापुर को लौट आये । राजा दुर्योधन ने भाइयों और बन्धु-बान्धवों के माथ आगे बढ़ कर उन्हें लिया और उनका यथोचित सत्कार किया। फिर उन्होंने डंके की चोट से यह बात मर्वत्र प्रसिट्ट कर दी कि कण दिग्विजय कर पाये; कोई देश उनसे जीतने से नहीं बचा। इसके बाद उन्होंने कणं से कहा :-- हे कर्ण ! तुम्हारा मङ्गल हो। भीष्म, द्रोण आदि वीगें सं जो बात नहीं बन पड़ी सो तुमन कर दिखाई। तुमसे हमने सब कुछ पाया । आओ, गजा धृतराष्ट्र और पूजनीया गान्धारी का आशीर्वाद लो। ____ इस समय पाण्डवों को जीतने के सम्बन्ध में कौरवों को कोई सन्देह न रहा। तब कर्ण ने कहा :- हे दुर्योधन ! इम पृथ्वी पर अब तुम्हारा कोई शत्र बाक़ी नहीं। इमलिए ब्राह्मणों को बुला कर इस समय तुम किसी महायज्ञ के करने की तैयारी करो । इम उपदेश के अनुसार दुर्योधन ने पुरोहित को बुला कर कहा :- हे ब्राह्मणों में श्रेष्ठ ! हमारे लिए विधि के अनुसार गजसूय महायज्ञ करने की तैयारी करो। पुरोहित ने कहा :-महाराज ! आपके पिता और धर्मराज युधिष्ठिर के जीवित रहने आपका राजसूय यज्ञ करना उचित नहीं। किन्तु, हे राजन् ! राजसूय ही की तरह का और भी एक महायज्ञ है। आप वही कीजिए। आपके जीते हुए राजा लोग सोने के रूप में आपको कर दें। आप उसी का एक हल बनवाइए और उससे यज्ञभूमि जुनवाइए। वहीं शास्त्र के अनुसार यज्ञ कीजिाए । इस महायज्ञ का नाम वैष्णव यज्ञ है। यह राजसूय ही के बराबर है और शास्त्र के अनुसार आप उस कर भी सकते हैं। जब सब लोगों ने ब्राह्मण की बात का अनुमोदन किया तब दुर्योधन ने यज्ञ की तैयारी करने की आज्ञा दी । शीघ्र ही सब सामग्री के जुट जाने पर कारीगरों, मन्त्रियों और महाबुद्धिमान् विदुर ने दुर्योधन से कहा :- . महाराज ! सोने का मूल्यवान् हल तैयार है और यज्ञ आरम्भ करने का शुभ दिन भी आ गया है। यह सुन कर दुर्योधन ने यज्ञ आरम्भ करने की आज्ञा दी और विधि के अनुसार दीक्षा ग्रहण की। राजों और ब्राह्मणों को बुलाने के लिए चारों तरफ़ दूत भेजे गये । इस समय दुःशासन ने उनमें से एक आदमी से कहा :- हे दूत ! तुम द्वैतवन में जाकर पाण्डवों को भी निमन्त्रण देना। दुःशासन के आज्ञानुसार वह दूत युधिष्ठिर के पास गया और प्रणाम करके बोला :- महाराज ! राजा दुर्योधन अपनी वीरता से प्राप्त किये हुए धन द्वारा यज्ञ करने जाते हैं । उनकी इच्छा है कि आप भी वहाँ उपस्थित होकर यज्ञ का दर्शन करें।
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