पहला खण्ड ] धृतराष्ट्र के पुत्रों का राज्य करना १२३ चित्रसेन को पहचाना तब युद्ध बन्द कर दिया और हमें छोड़ देने के लिए उनसे कहा। चित्रसेन ने हमारे आने का असल मतलब पाण्डवों पर प्रकट करके हमें बेहद लज्जित किया। उस समय हमारे मन में यही आता था कि पृथ्वी फट जाय और हम उसमें समा जायँ । भाई ! हमें गन्धर्वो ने कैद कर लिया था। हमारे शत्रु पाण्डवों ही ने हमें प्रिया के सामने छुड़ाया। फिर, युधिष्ठिर के पास हमें वे मानों उपहार की तरह ले गये। जिन्हें मारने की हमने बार बार चेष्टा की, उन्हीं ने हमें प्राणदान दिया। यह अपमान सह कर अब हम नहीं जी सकते । इसकी अपेक्षा गन्धर्वो के हाथ से मर कर इन्द्रलोक पाना हमारे लिए सौगुना अच्छा था । यह हाल सुन कर भीष्म, द्रोण, विदुर आदि हमें क्या कहेंगे। इसके लिए वे हमारी जैसी दिल्लगी उड़ावेंगे उसे सोच कर क्षण भर भी जीने की इच्छा नहीं होती। हे दुःशासन ! हम तुम्हें राज्य सौंपते हैं। तुम सजातियों पर प्रीतिभाव रखना और गुरुजनों का पालन करना। यह कह कर दुर्योधन ने दुःशासन को गले से लगाया। दुःशासन डबडबाई हुई आँखों से-महाराज ! प्रसन्न हो --कह कर जेठे भाई के पैरों तले लांट गये । वे कुछ न कह सके। कुछ देर बाद धीरज धर के बोले :- महाराज ! भूमि फट सकती है और आकाश के टुकड़े टुकड़े हो सकते हैं। किन्तु तुमने जा कहा वह नहीं हो सकता। तुम जीते रहो और सौ वर्ष तक राज्य करो। हमारे वंश में तुम्हीं राज्य करने योग्य हो। ___ यह कर कह दुःशासन भाई के दोनों पैर आँसुओं के भिगोने लगे। ऐसी शोचनीय दशा देख कर महाबली कर्ण को बड़ा दुःख हुअा। वे समझाने लगे :- हे कौरवगण ! यह कौन बड़ी बात है। ऐसी छोटी छोटी बातों के लिए तुम मामूली आदमियों की तरह व्यर्थ दुखी होते हो। राजन् ! शोक करना वृथा है। उससे वैरियों का आनन्द बढ़ता है। शॉक करने से कोई लाभ नहीं। इसलिए धीरज धरो। पाण्डव लोग तुम्हारे राज्य में तुम्हारे ही आसरे रहते हैं। अतएव वे तुम्हारी प्रजा के समान हैं । जैसे अन्यान्य प्रजा का काम तुम्हारी रक्षा करना है वैसे पाण्डवों का भी है। जिसका पालन किया जाता है उसे राजा को प्रसन्न रखना ही चाहिए। पाण्डवों ने जो तुम्हारा प्रिय कार्य किया तो उसमें विचित्रता ही क्या है ? यह कोई नई बात नहीं। इसके लिए मरने की कामना करना उचित नहीं। देखो, तुम्हारे भाई तुम्हारी दीन दशा देख कर कितने शोकाकुल हो रहे हैं। अब तुम उन्हें धीरज देकर घर चलो । यदि तुम हमारी बात न मानोगे तो हम भी तुम्हारे साथ यहीं प्राण दे देंगे। परन्तु कर्ण की बात पर भी दुर्योधन ने ध्यान न दिया। वे शय्या से न उठे; वहीं भूखे प्यासे पड़े रहने का उन्होंने निश्चय किया। तब शकुनि कहने लगे :- ___ हे महाराज ! आप कर्ण की न्यायानुकूल बात क्यों नहीं सुनते ? हमारा पैदा किया हुआ अनन्त ऐश्वर्या बिना किसी कारण के आप क्यों छोड़ने को तैयार हैं ? जो मनुष्य हर्षे या शोक के वेग को नहीं रोक सकता उससे अधिक नादान और कौन है ? इसमें सन्देह नहीं कि पाण्डवों ने आपका बड़ा उपकार किया है। इसके लिए शोक न करके उलटा प्रसन्न होना चाहिए और उनका उचित सत्कार करना चाहिए। यदि आप लज्जित हैं तो बदले में उनके साथ कोई भलाई करके कृतज्ञता-रूपी ऋण से छुटिए । शोक करना व्यर्थ है । प्रसन्न हूजिए । इच्छा हो तो पाण्डवों को राज्य दे दीजिए और उनसे मेल कर लीजिए। इससे आपका यश भी होगा। आप प्राण छोड़ देने का इरादा क्यों करते हैं ? शकुनि की बात समाप्त होने पर दुर्योधन ने पैरों तले पड़े हुए अपने भाई दुःशासन को बड़े स्नेह के साथ दोनों हाथों से उठाकर छाती से लगाया और माथा सूंघ कर दीन भाव से कहा :-
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