पहला लण्ड ] पाण्डवों का वनवास ११७ रह सकते हैं। किन्तु अभी हमें अपना गज्य कौरवों से लेना है और वह काम बहुत जरूरी है। उसे भुला देने से काम न चलेगा। इसलिए हमको अपने गज्य के पाम ही किमी जगह लौट चलना उचित है। वहीं, समय आने पर, कृष्ण श्रादि यादवों के साथ हम लोग अपना कर्तव्य-निश्चय कर सकेंगे। धर्मराज ने भाइयों की बात मान ली । मब लोगों ने वहाँ के वन, नदी, सरोवरों को फिर एक बार देग्य कर कुबेरपुरी की प्रदक्षिणा की और यक्षों को बुला कर गन्धमादन-निवासियों से बिदा ली। अनन्तर. द्रौपदी और ब्राह्मणों के साथ पाण्डव लोग उसी पहले के परिचित गस्त से लौटन लगे । पहाड़ी देश के भयङ्कर स्थानों में घटोत्कच आदि गक्षमों ने पहले ही की तरह उनकी महाग दिया । महर्पि लोमश, पिता की तरह सबको उपदेश देकर, फिर देवलोक का पधारे। गस्त में एक महीना बदरिकाश्रम में रह कर पाण्डव लोग सुबाहु-गज के देश में पहुँच और अपने नौकरों तथा अवशिष्ट तपस्वियों से मिले। फिर कुछ दिन वहाँ रह कर द्वैत वन की ओर यात्रा की। द्वैत वन में पहुँचने पहुँचत गर्मी बीन गई और सुग्यमय वर्षा ऋतु आ पहुँची। काली काली घटायं आकाश में छा गई और गग्ज घुमड़ कर दिन रात बरसने लगीं। सूर्य के अग्वण्ड प्रकाश के बदले क्षण क्षण पर बिजली चमकने लगी। लहलहाती हुई हरी हरी घाम से भरी हुई शान पृथ्वी मनुष्यों का जी लुभाने लगी। मूखी हुई नदियाँ उमड़ कर बह चली। पाण्डवों ने आगे बढ़ने का विचार छोड़ कर सुख से यहीं वर्षा बिताई। धीरे धीरे शरद ऋतु का आगमन हुआ। तब वनों में और पहाड़ों की चोटियों पर खूब घास देव पड़ने लगी, नदियों का जल निर्मल हो गया, आकाश से मेघ जाते रहे। रात का नक्षत्र और भी अधिक उज्ज्वल हो उठे। शरद ऋतु की कार्तिकी पौर्णमासी आन पर वहाँ से चलने की तैयारी हुई । कृष्णपक्ष के लगते ही पाण्डव लोग ब्राह्मणों को साथ लिये हुए काम्यक वन की ओर चल दिये। जब वे काम्यक वन पहुँचे तब वहाँ के ब्राह्मणों ने उनका यथाचित सत्कार करके कहा :- हे पाण्डवगण ! अर्जुन के प्यारे मित्र कृष्ण आपके दर्शनों की इच्छा से आपके श्राने की खबर सदा ही पूछते रहे हैं । निश्चय है कि अब वे शीघ्र ही श्रावेंगे । ब्राह्मणों के कहने के अनुसार थोड़े ही दिनों में कृष्ण अच्छे लक्षणोंवाल घोड़े जुते हुए ग्थ पर सवार होकर प्रियतमा सत्यभामा के साथ काम्यक वन आ पहुँचे। जल्दी जल्दी रथ से उतर कर उन्होंने धर्मराज युधिष्ठिर, भीमसेन और पुरोहित धौम्य को प्रसन्नतापूर्वक प्रणाम किया और नकुल सहदेव का नमस्कार लेकर द्रौपदी से कुशल-समाचार पूछा; फिर प्रियतम अर्जुन को जी खाल कर हृदय से लगाया। इधर कृष्ण की प्रियतमा सत्यभामा ने द्रौपदी को बार बार भेंटा। अर्जुन ने कृष्ण से अपने भ्रमण का वृत्तान्त आदि से अन्त तक कह कर सुभद्रा और अभिमन्यु के कुशल- समाचार पूछे। कृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा :- हे राजन् ! आपने जो राज्य पाने की अपेक्षा धर्म ही को बड़ा समझा है सो यह बात आपके योग्य ही हुई है। अर्जुन ने भी इतने दिन तक दिव्य अस्त्र चलाना सीख कर क्षत्रिय-धर्म के अनुसार ही काम किया है। आपकी प्रतिज्ञा पूरी होने पर, आज्ञा पाते ही, हम कुरुवंश निर्मूल करके आपको साम्राज्य लौटा देंगे।
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