११५ पहला खण्ड ] पागडवों का वनवाम घंटाकच श्रादि अाज्ञाकारी गक्षयों की सहायता में पागडव लोग जल्दी जल्दी चल कर भीम के जाने के चिह्नोंवाले गम्त से कुवंर के मगदर के पास पहुँच गये। वहाँ देग्या कि भीमसन गदा हाथ में लिये किनारे पर खड़े हैं और ओंठ चबा रहे हैं; तथा उनके चारों तरफ बहुत से यक्ष घायल पड़े हुए हैं । यह देख कर कि ग्वुद भीम के ज़रा भी चोट नहीं लगी युधिष्ठिर ने उन्हें बार बार प्रालि- गन किया और पूछा :- भाई ! यह क्या किया ? निश्चय ही तुमने किमी देवता को अप्रसन्न किया है। जो हो, यदि हमें चाहते हो ना अब कभी ऐसा न करना । धर्मगज इस तरह बातें कर ही रहे थे कि कुबर ने उनके आने का हाल सुनते ही विश्वाम- पात्र संवक भेज कर उनका आतिथ्य-मत्कार किया और यह आज्ञा दे दी कि जब तक अर्जुन लौट न आ। तब तक इच्छानुसार विहार करते हुए वे लोग गन्धमादन पर निवास करें। प्रियतमा द्रौपदी को सन्तुष्ट करके भीमसेन बड़े प्रसन्न हुए। - इसके बाद द्रौपदी के माथ पाण्डव लोग बड़े चाव में गन्धमादन की अद्भुत शाभा का, बिना किसी वित्र-बाधा के, आनन्द लूटतं और पवित्र स्वभाववाल ऋपियों के आश्रमों में घूमते तथा ग्मीले फल खाने और साफ पानी पीते हुए शान्त चित्त से अर्जुन के आने की राह देखने लगे। इधर अर्जुन ने इन्द्र-लोक में पाँच वर्ष रह कर पाये हुए हथियारों के चलान में निपुणता प्राप्त करके मर्त्यलोक आने के लिए इन्द्र से आज्ञा ली। माथं पर मुकुट, गले में माला, और अङ्ग में तरह तरह के सुन्दर गहने पहने हुए महाबली अर्जुन इन्द्र के सारथि मातलि के चलाये हुए रथ पर सवार होकर उल्का की तरह एकाएक गन्ध- मादन में आ पहुँचे । पाण्डव उन्हें पाकर और अर्जुन भी सबसे मिल कर बड़े आनन्दित हुए। धीरे धीरे सबसे यथोचित प्रणाम और कुशल-प्रश्न करके धनञ्जय ने स्वर्ग में पाये हुए गहने प्रियतमा द्रौपदी को दिये। फिर सबके बीच में बैठ कर, उनके तरह तरह के प्रश्नों के उत्तर में, अर्जुन इतने दिन सफर में रहने का अपना सब हाल कहने लगे। पहले कैलास पर्वत पर निवास और नपम्या, इन्द्र के दर्शन, महादेव की आराधना, उनके दर्शन-म्पर्श, और उनसे पाशुपत अस्त्र पाना, इन्द्र श्रादि देवताओं से प्रयोग के सहित दिव्य अत्रों की प्राप्ति आदि मब घटनाओं का सिलसिलेवार वर्णन करके अर्जुन कहने लगे :- हे धर्मराज ! इसके बाद जब देवराज इन्द्र ने देवकार्य के लिए हमें बुलाया तब हमने, उसस अपना बेहद गौरव समझ कर, कहा :- हे देवराज ! जो कुछ हम कर सकते हैं उसके करने में जग भी कमर न करेंगे। तब इन्द्र भगवान् ने हँस कर कहा :- हे अज़न ! निवात-कवच नामक महा भयङ्कर दानवों का एक दल हमसे सदा ही शत्रता किया करता है । समुद्र के बीच की एक अत्यन्त मनोहर नगरी, जो पहले हमारे अधिकार में थी, आज कल उन लोगों ने जबरदस्ती छीन ली है। किन्तु महादेवजी के वर के प्रभाव से हम उन्हें नहीं मार सकतं । इसलिए उनके विनाश के लिए हम तुम्हें नियुक्त करते हैं। - इसके बाद इन्द्र ने हमको अपने सारथि मातलि के चलाये हुए प्रकाशमान दिव्य रथ पर सवार कराके अपना निज का अभेद्य कवच और गहने पहनाये और अपने हाथ से हमारे माथे में यह मुकुट बाँध कर यात्रा करने की आज्ञा दी। तब हमने विमान के रास्ते अनेक लोकों के दर्शन करते हुए, फेनेदार पहाड़ी की तरह उठनी हुई लहरोंवाले महासागर के निकट पहुँच कर, उस समुद्र के बीच में रहनेवाले दानवों का घर देखा । उसे देखते ही जब हम बड़ा शब्द करनेवाला अपना देवदत्त शङ्ख धीरे धीरे बजाने लगे तब आकाश में सन्नाटा छा गया।
पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/१३७
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।