पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/१२८

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मचित्र महाभारत [पहला खण्ड और वहीं रहने लगे। व्यासजी की दी हुई विद्या युधिष्ठिर ने जब अपने वश में कर ली तब एक दिन एकान्त में अर्जुन के कन्ध पर अपना हाथ रख कर कहा :- वत्स ! यह निश्चय है कि युद्ध के सिवा हमारे लिए और काई उपाय नहीं । हम समझते हैं कि आनेवाले उम भयङ्कर युद्र में दुर्योधन की तरफ़वाल योद्धाओं का तुम्ही सामना करोगे। इससे उसके लिए अभी से तैयार हो जाना चाहिए। महर्षि व्यासदेव के बताये हुए उपाय के अनुसार तुम कैलास पर्वत पर जाकर दिव्यास्त्र पा सकते हो। तुम व्यास की दी हुई यह विद्या सीखो और अस्त्र- धारण तथा व्रत-ग्रहण करके उत्तर का जाव । युधिष्ठिर की आज्ञा के अनुसार अर्जुन ने कवच और अंगुस्तान पहन; गाण्डीव धनुष लिया; अपनी दानां तरकमें भी ली, जिनके भीतर भरे हुए बाण सैकड़ों दफ़ चलाये जाने पर भी कभी कम न होन थे। फिर उन्होंने अग्निहोत्र किया और ब्राह्मणों के आशीर्वाद से उत्साहित होकर सबसे विदा हुए। उस समय द्रौपदी की कगारम से भरी हुई बातें सुन कर सबकी छाती उमड़ आई। वह कहने लगी :- ह विशालबाहु ! तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो । कौरवों के अपमानित करने से मुझे जा दुख हुआ था उमस अधिक दुख तुम्हारी जुदाई के शाक से हो रहा है। किन्तु भविष्य में हम लोगों के सुख की आशा केवल तुम्हीं पर अवलम्बित है । इसलिए, ह वीर ! म तुम्हारी हितचिन्नना करती हूँ; तुम बिदा हो; और जहाँ तुम्हं जाना है वहाँ बिना किसी विघ्न-बाधा के पहुँचा। परमेश्वर का नमस्कार है; वह तुम्हारा सब जगह मङ्गल करें। द्रौपदी की मङ्गलकामना मे सन्तुष्ट होकर अजुन भाइयां की और पुगहित धौम्य की परिक्रमा करकं चल दिये। अर्जुन जल्दी जल्दी चल कर थाई ही दिनों में देवताओं के निवास स्थान पवित्र हिमालय पर्वत पर पहुँचे। गन्धमादन पर्वत आदि दुर्गम स्थानों को पार करके अन्त में वे कैलास पर्वत के पास जा पहुँचे। उस पर वे कुछ ही दूर चढ़े होंगे कि आकाश में सहमा ---ठहरो !-यह शब्द उन्हें सुनाई पड़ा । इधर उधर घूम कर जा उन्होंने देखा ता मालूम हुआ कि एक पेड़ के नीचे लम्बी लम्बी पिंगट जटावाला एक दुबला पतला तपम्वी खड़ा है। तपस्वी ने पूछा :- तुम व्रतधारी होकर भी किम लिए हथियार बाँध हो ? यह शान्त स्वभाववाल तपस्वियों का आश्रम है। युद्ध की चीजों का यहाँ क्या काम ? इसलिए धनुष छोड़ कर पुण्य-मार्ग का अव- लम्बन करो। पर अजुन अपनी बात और अपने व्रत के पक्कं थे। वं उस तपस्वी की बात से ज़रा भी न डिगं । तब वह तपस्वी प्रसन्न होकर बाला : - वत्म ! तुम जी वर चाही माँगो। हम देवराज इन्द्र हैं। यह सुन कर महाबली अर्जुन ने हाथ जोड़ कर प्रणाम किया और बाल :- भगवन् ! मैं आपस मार्ग दिव्यास्त्र विद्या सीखने आया हूँ; कृपा करके आप यही वर मुझे दीजिए। अर्जुन की परीक्षा लेने के लिए इन्द्र फिर बोले :- पुत्र ! तुम्हें अत्रों की क्या जरूरत ? मर्त्यलोक में रहनेवाले सब लोग इन्द्रलोक पाने ही के लिए परिश्रम करते हैं। इस समय उस स्थान का पाना तुम्हारे हाथ में है। __ अर्जुन ने कहा :--हमने लोभ और काम के वश होकर इन कठिन रास्तों को नहीं पार किया।