पहला खण्ड ] पाण्डवों का वनवास गये हैं। इसलिए वह कौन सा धर्म है जो तुम्हें अपना राज्य ले लन में बाधा देता है ? सूक्ष्म धर्म की रक्षा के लिए तुम राज्य-शासनरूपी महाधर्म को छोड़ रहे हो। तुम्हारे इन्हीं सूक्ष्म विचारों के कारण हमारा गज्य गया । तुम डरते हो कि हार जायेंगे। पर इस वनवास के क्लशों की अपेक्षा युद्ध में मर जाना अधिक दुखदाई नहीं । जिन कामों मे मित्र को दुख और शत्र को सुख हो उनको धर्म नहीं, किन्तु पाप कहते हैं। इस समय तो यह बात प्रत्यक्ष देख पड़ती है कि मदा धर्म की चिन्ता करनेवाले मनुष्य को धर्म और अर्थ दोनों ही छोड़ जाते हैं। इसके उत्तर में महात्मा युधिष्ठिर ने कहा :- भाई ! यद्यपि तुम्हारे वाक्यबाणों से हम बड़े दुखित हुए हैं तथापि तुम्हें दोष नहीं दे सकते । हमारं ही अन्याय से तुम विपद के समुद्र में गिरे हो। चतुर जुआरी न होने पर भी हम खेल के नशे में चूर हो गये और शकुनि की दुष्टता समझ कर भी हम जीतने की इच्छा से बराबर खेलते रहे । अन्त में द्रौपदी के द्वारा दासत्व से छूट जाने पर भी वनवास की भयङ्कर शर्त में हम फिर बँध गये। उस समय तुमने भी हमें न रोका । और, हम भी इस डर से कि पीछे से लोग हमें कायर कहेंगे, जुआ खेलने से इनकार न न कर सके। यदि हममें जुआ खेलने की नीच और बुरी आदत न होती तो हम लोग हार कर वनवास क्यों भोगतं ? किन्तु एक बार प्रतिज्ञा में बंध जाने पर उस कैसे तोड़ें ? हे भीम ! यदि तुम उम समय हमारी दोनों भुजायें मचमुच ही भस्म कर डालते तो बड़ा अच्छा होता। वैसा होने से ये मब बानं न होती। आज इस तरह तुम्हारे वाक्यबाणों से मर्मविद्व होने की अपेक्षा हमें उससे कम क्लेश होता। हं भाई ! उस समय प्रियतमा द्रौपदी का अपमान जो हमें चुपचाप देखना पड़ा था उसके शोक से अब तक हमारा हृदय जल रहा है। हे भीम ! इस समय क्या कह कर हम तुम्हें धीरज दें। जैसे किसान बीज बोकर फल पाने का रास्ता देखते हैं वैसे ही तुम भी अनुकूल समय की प्रतीक्षा करो। भीम ने कहा :-महाराज! मौत सदा सिर पर नाचा करती है। मंभव है, तरह वर्ष ही में हमारी मृत्यु हो जाय। यही सोच कर हमें महा दु:ख होता है. यही कारण है जो विलम्ब हमें दुःसह हो रहा है। युधिष्ठिर ने ठंडी साँस भर कर कहा :- हे भीम ! तुमने जो कहा सो ठीक है। किन्तु इस विषय में एक बात विचारणीय है। वह यह है कि जितना तुममें साहस है उतनी समझ नहीं। दुर्योधन की तरफ़ जितने योद्धा और सिपाही हैं उनको तुम इस समय कैसे जीनागे ? हमें ना अकेले दृढ़-कवचधारी महाबली कर्ण की युद्र-निपुणता को सोच कर अच्छी तरह नींद भी नहीं आती। जेठे भाई की ये बात सुन कर भीमसेन बहुत उदास हुए और चुप हो रहे । इस तरह बातचीत हो ही रही थी कि महर्षि द्वैपायन वहाँ आ पहुँच। पाण्डवों की बातें सुन कर वे युधिष्ठिर से बोले :- ___ हे धर्मराज ! भीष्म, द्रोण, कर्ण आदि दुर्योधन के पक्षवाल धनुर्धरों से जो तुम डरत हो सा तुम्हारा डरना बहुत ठीक है । जिस तरह वह डर दूर हो सकता है उसकी तरकीब हम तुम्हें बताते हैं। हे भरतवंश में श्रेष्ठ ! श्रुतिस्मृति नाम की यह विद्या हम तुम्हें देते हैं। महाबली अर्जुन से कहो कि इसकी सहायता से वे दिव्यास्त्र प्राप्त करने के लिए तपस्या करें । तपस्या द्वारा इन्द्र और महादेव को प्रसन्न करके वे तरह तरह के दिव्यास्त्र प्राप्त कर सकेंगे। साथ ही, उनके चलाने की तरकीब भी मालूम कर सकेंगे । इस तरह भावी युद्ध में तुम्हारं भय का कारण पूर्णरूप से मिट जायगा। विद्या देकर व्यासदेव चले गये। पाण्डव लोग द्वैत वन से फिर काम्यक वन को लौट आये
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