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संत-काव्य

प्रेमिका राधा को महत्त्व प्राप्त है तथा 'गोपीभाव, को उनके यहाँ सर्वश्रेष्ठ स्वीकार करने की भी परंपरा है। परंतु संतों के यहाँ परकीया भाव को अपनाना उतना आवश्यक नहीं समझा गया। है। इसका कारण यह हो सकता है कि परकीया नायिका अपने प्रियतम की ओर आकृष्ट होकर उसके प्रति आत्मीयता का भाव स्थापित करना तथा उसका सान्निध्य प्राप्त करना चाहती है जहाँ ये बातें, जीवात्मा एवं परमात्मा की मौलिक अभिन्नता के कारण संतों के लिए स्वयंसिद्ध सत्य के रूप में पहले से ही स्वीकृत रहा करती है। ऐसी दशा में, वैसे किसी संबंध की स्थापना की आवश्यकता ही नहीं रहा करती। पति पत्नी भाव का उपयोग वे इसी कारण, अपनी स्वानुभूति की तीव्रता के लिए ही किया करते हैं जो उनके मंतव्यानुसार किसी सती साध्वी स्त्री की अपने पति के प्रति प्रदर्शित की गई एकांतनिष्ठा एवं आत्म त्याग के द्वारा, स्वकीया रूप में भी, समुचित प्रकार से सिद्ध हो जाता है ं।

उपर्युक्त दाम्पत्यभाव अथवा गोपीभाव को बहुधा 'मधुररस' को संज्ञा दी जाती है। उसका निष्पन्न होना शृंगाररस के विभाव, अनु भावादि के ही समकक्ष अंगों पर निर्भर समझ लिया जाता है। परंतु इस दोनों में, स्वभावतः महान् अंतर भी लक्षित होता है। गाररस की अनुभूति किसी लौकिक वा सांसारिक वातावरण में की जाती है जहाँ मधुररस का संबंध किसी अलौकिक वा इंद्रियातीत जगत्के साथ रहता है। मधुररस में, इसी कारणकाम वासना का होना संभव नहीं समझा जाता जहाँ शृंगाररस की भावना तक उसमें ओत प्रोत रहा करती है। शृंगारस द्वारा व्यक्त किये गए प्रेम में आतुरता हो सकती है और वह विवशता की परिस्थितियों में, कातरता से आर्द्र भी बन जा सकती है, किंतु मधुररस में जिस 'आर्त्ति' वा गूढ़ प्रेम का विस्फुरण होता है वह उससे कहीं भिन्न स्तर की अनुभूति है।