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संत-काव्य

'सीहर्फ़ी' (अर्थात् तीस अक्षरों वाली) नाम की रचना की है। उन्होंने ऐसा करते समय, 'पे', 'ट' 'डाल', 'ड', 'ज़े' और 'क़ाफ' नामक अक्षरों का समावेश नहीं किया है, किंतु यारी साहब ने 'पे', 'टे', 'चे', 'डाल', 'डे', और 'जे' को छोड़ा है। यारी साहब का एक और 'अलिफ़ नामा' उनके संग्रहों में मिलता है जिसमें उक्त छः अक्षरों के अतिरिक्त 'गाफ़' अक्षर को भी निकाल दिया गया है और इस बात में उनका अनुकरण बाबा धरनीदास ने भी अपनी रचना 'अलिफ़ नामा' में किया है। इन दो कृतियों में, इस प्रकार तीस की उपर्युक्त संख्या केवल उनतीस ही रह जाती है। जान पड़ता है कि फ़ारसी के कतिपय अक्षरों को भी इन संतों ने यों ही उसी प्रकार छोड़ दिया है जिस प्रकार नागरी अक्षरों में से कुछ का अन्य संतों ने त्याग कर दिया था। 'बावती' वा 'सीहफ़' नामों पर विशेष ध्यान नहीं दिया है। इसके सिवाय 'एक' का 'पहाड़ा' लिखते समय भी इसी प्रकार, बाबा धरनीदास ने जहाँ 'दहाई' तक लिखा है वहाँ गुलाल साहब 'एकादस' तक चले गए हैं।

संतों की एक रचना-पद्धति उनके काल वा समय के भिन्न-भिन्न अंशानुसार लिखने में देखी जाती है। 'गोरख वानी' के देखने से पता चलता है कि गोरखनाथ ने 'पंद्रह तिथि एवं सप्तवार' शीर्षक दो रचनाएं, क्रमशः तिथियों तथा दिनों के नामानुसार की थी। उनकी एक रचना उस ग्रंथ के 'परिशिष्ट' में, 'सप्तवार नवग्रह' नाम की भी आयी है जिसमें नवों ग्रहों का भी उल्लेख है। उक्त 'पंद्रह तिथि में' तिथियों की चर्चा अमावस्या से लेकर पूर्णिमा तक की गई है जिससे उनके वस्तुतः सोलह नाम आ जाते हैं। 'सप्तवार' वाली उक्त रचना में योग साधना की विविध बातें संक्षिप्त रूप में बतला दी गई हैं और 'सप्तवार-नवग्रह' में इन सभी का 'काया भीतरि' वर्तमान होना भी कहा गया है। संत रज्जब जी ने भी एक रचना 'पंद्रह तिथि' नाम से की हैं और