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४६० संत-काव्य वहबाबाद-विवाद । "ग्यारस =एकादशी व्रत में लाने -उन्हें । साखी आध घड़ी की अध घड़ी, अब घड़ी की प्राथ। स सेंती गोसटी, जो कोले सो लाभ 17१। आदि समय चेता नहींअंत समय अंधियार। मद्ध समय सया रत, पाकर लिये गंवार' है।२। ऐसा अंजन शांजिये सूके त्रिभुवन राय। कामधेनु अरु कलप , घटही मांहि लखाथ ५३ ।। पंछी उड़े अकास , कितजू कोन्हा गौन । यह सन ऐसा जरत है, जैसे बुदबुद पौन ॥४। ऐसे लाहा लीजिएसंत समागम सेब । सतगुरू साहब एक है, तीनो अलख अभेज ।। ऐसा सतगुरु हम मिला, सुरत सिंस के मोह । सब्ध सरूपी अंग है, पिंड प्रान नहि छांह ३६ है। ऐसा सतगुर हम मिला, सुरत fस के नाल। गमन किया परलोक से, अलल पछ की चाल ७। ऐसा सतगुरु हम मिला, तेज पुंज के अंग। झिलमिल नूर जहूर हैरूप रेख नह रंग I८ साहब से सतगुरु भये, सतगुरु से भये साथ । ये तीनों अंग एक है, गति कs अगम अगाध 18.॥ सतगुरु पूरम ब्रह्मा है, सतगुरु आप अलख । सतगुरु रमता राम है, यामें मीन न मेख ५१०। अलल पंख अनुराग है, सुन्न मंडल रह थोर। बास गरीब उघरिया, सत गुरु सिले कबीर क११।