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संत-काव्य


का नाम सादृश्य हमें उन रचनाओं का भी स्मरण दिलाता है जो दक्षिण भारत में प्रसिद्ध हैं और जिन्हें स्वामी रामानुजाचार्य के दादागुरु नाथमुनि (मृ० सं० ९७७) ने सर्वप्रथम, ‘नाडायिर प्रबंधम्’ (अर्थात् ४००० भजनों का संग्रह) के नाम से संगृहीत किया था और जिनका पाठ वहाँ के मंदिरों में अब तक होता आ रहा है। वे भजन प्रसिद्ध आडवार भक्तों की रचनाएँ हैं। उनके महत्वपूर्ण होने के कारण, उक्त संग्रह कभी-कभी 'तामिलवेद' कहकर भी पुकारा जाता है। उसके भजन दक्षिण भारत के प्रधान मंदिरों में बड़ी श्रद्धा के साथ गाये जाते हैं। पता नहीं उस 'प्रबंधम्' में संगृहीत पदों की रचना उपर्युक्त प्रकार में हुई है वा नहीं, किंतु इतना तो स्पष्ट है कि पीछे आने वाले कवि जयदेव की 'गीतगोबिन्द' जैसी रचनाएँ उक्त प्रबंध पद्धति वा बौद्धों के चर्यापदों का ही अनुसरण करती हैं। विद्यापति एवं चंडीदास आादि के पद भी लगभग उसी ढंग से लिखे गए मिलते हैं।

संत कवियों की ये रचनाएँ भी, इसी प्रकार, गेयपदों के रूप में स्वीकृत की जाती हैं और ये 'शब्द' वा 'भजन' कहला कर बहुधा गायी भी जाती हैं। अपने विषय की दृष्टि से ये अधिकतर उन भावों को ही व्यक्त करती हैं। जो स्वानुभूति के परिचायक हैं। इनमें परम- तत्त्व के अनुभूत लक्षण, उसके प्रति प्रदर्शित विविध भाव, संसार की दूरवस्था, आत्मनिवेदन एवं चेतावनी आदि विषय ही विशेष रूप में दीख पड़ते हैं जिससे अनुमान किया जा सकता है कि संतों ने उन्हें अपनी गहरी अनुभति के अनंतर अपने व्यक्तिगत उद्गारों के रूप में ही प्रकट किया है। आकार के विचार से ये छोटे वा बड़े सभी प्रकार के पाये जाते हैं, किंतु 'ध्रुव' तथा 'आभोग' वाले अंग उनमें से प्राय: सभी में वर्त्तमान रहते हैं। संतों के पदों में ध्रुव बहुधा 'टेक' के नाम से आता है।