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-- मध्ययुग (उत्तराखें) ४१५ परम पुरख परमेस्वर स्वामी, पावन पउन अहारी। साधव महाजप्ति संधमरदन, सान सूक्रेद रहे।१॥ निर्विकार निरजूर निद्राविन, निईि ख नरक निवाते। कृपा सिंधु कालजंदरसी, कुकृतशनाखनकारो।२। घर वान-मान धराघरअनिविकार असिधारे। हाँ प्रतिसंद बरन सरनागतकरन गहि लहू उबारी।३ (शब्द हजारे) मथ मरदतम वैश्य का नाश करने बाले। निरजर=बिना वृद्धावस्था कें। निर्बिख=निष्पापबिशुद्ध। अनिविकार-=विकार रहित। कवित कोऊ भयो मुंडिया संन्यासीकोक जोगी भयो, कोक ब्रह्मचारीकोऊ जसियन मानवो। हिन्दू सुरक कोऊ राफजो इमाम सफी मानस की बात सर्फ एक पहचानबो है। करता कम सोई राज रहम औई दूसरों न भेद कोई भूल भ्रम मानबो । एक हो की सेव सबही को गुरुदेव एक, एक ही सरूप सवे, एक जो जानबो।।१। जैसे एक नाग ने कनूका कोट आग उठे पारे न्यारे हृके फेर आमने मिनाहिंगे । जैसे एक घूरते अनेक धूर धूरत हैं, के कन्नूका पर यूरही समाहिये । जैसे एक नदते तरंग कोट उपजत हैं, पानके तरंग सब पानहो कहाहों। तैसे विस्वरूप में भूत भूत प्रगट हो, ताहोते उपज सब तह में स्माiहमें । २8