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४१४ संत-। निर्मित किया और उनमें आत्मत्याग की भावना भरी। तब से ये गोविंद राय से गोविंद सिह हो गए और सभी एक विशेष व्रत के व्रती बनकर इनके अनुसरण में बलिवेदी पर चढ़ने लगे । मुल राज्य के विरुद्ध इन्हें कई युद्ध लड़ने पड़े और कई बार इन्हें उनमें सफलता भी मिली, किंतु अंत में इन्हें अपनी जन्म-भूमि छोड़नी पड़ी। ये लड़ते-झगड़ते हुए दक्षिण की ओर नादेड़ तक पहुँच गए और वहीं पर किसी पठान द्वारा पेट में कटार युभो दी जाने के कारण, मिति कातिक सुवि ५, सं० १७६५, को इन्होंने अपना शरीर त्याग कर दिया । गुरू गोविंद सिंह शस्त्रविद्या के साथसाथ काव्य-शास्त्र में भी निपुण थे और उनके यहां गुणियों का सम्मान भी हुआ करता था। प्रसिद्ध है. कि उनके दरबार में ५२ कवियों को आश्रय प्राप्त था और संस्कृत " महत्वपूर्ण ग्रंथों का शुद्ध एवं सुंदर अनुवाद कराने के लिए भी उन्होंने प्रयल किये । वे एक धर्मगुरु होने के अतिरिक्त, साहसी वीरनीतिपरायण नेता तथा कुशल कवि भी थे । उनकी रचनाएं सिखों के दसमग्रंथ में संग्रहीत हैं जिसे वे लोग गुरु ग्रंथ साहिब’ कहते तथा जिसकी गुरुवत् पूजा किया करते ह । उनकी रचनाओं में उनके पदों, कवित्तों सवैयों, साखियों आदि के द्वारा उनकी विचारधारा का परिचय मिलता है और उनकी 'विचित्र नाटक’ नामक रचना का प्रधान विषय उनके अनेक जन्मों की कथा है जो वास्तव में, अद्भुत ढंग की है । इस पुस्तक में तथा कई अन्य रचनाओं में भी चौपाई, दोहे बहुत आगे हैं ? इनका 'चंडों चरित्र' ग्रंथ ‘दुर्गा सप्तशती" का अनुवाद है, किंतु उस की पंक्तियां साहित्यिक ब्रजभाषा के लिए अच्छी उदाहण मानी जा सकती है । विनय प्रभुजी तोक(- लाज हमारी। नीलकी नरहरि नाराइण, नील बसन बनवारी !रहा।