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४१० संत-काव्य निरुम स्वामी (३) भाई इक्ष सांई जरा न्यारा है ।१। सो मुझमें में वही , क्यों जल मध्य तारा है ?२५ वा रूपरेख काया नहनह माया निस्तारा है ।३" अगम अपार अमर अविनासी, सो संतन का प्यारा है ।।४।। अनंत कला जाहे लहरि उठतु है, परम तत्त निरका है ।५॥ जन बुल्ला बह रान बोल है, सतगुरु शब्द अधारा है ।६है। संत रहनी (४) औोढ़ो चूनरी ततसार। अंचल असर अपार अंगिया, खांडे को ज्यों धार।।टेका। नाह सारे म) , ऐसा है ब्रह्तार। उमगि सोते प्रधर चढ़िया, बहुरि नए औतार 1१। एक पक्षी होत अबिंगति, साधु यह योहार। दास बू ला मडो बाजो, जाम कथा संसार १२। अंगियाटोली । तार->बिनावट का (गा । अधर.=गगस की ओर । सांडो=मार ली है। आत्मा ही सब कुछ न (५) आधु कहे आधुहो पतिधाई । निर्दूम नाम सदा सुखदाई ।।१॥ प्रलाप ऑौवल असें आखिर । आपे भीतर अप बाहिर है२है। श्राषु थाप अरु सर्वाबियापो। आामुहि ध्यानी आाधुहि जापी ।। प्राहि बोले आए बोलाई । अपुईि दे ले आ देखने ।४। आहि आवै आपुहि जावे। यह मति अचल कोऊ जन पत्र १५है। बूला बोले सु नर'लोई। गुरू बचन सुनि जगह बिलोई ।६। विलोई =मंथन कर डालो, समझ-बूझ लो ।