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मध्ययुगर (उत्तरार्द्ध ) ३३ सन्दर कहत याकी गतिहू न लषि पर मनकी प्रतीति कोऊ करे सो दिवान है ।३ ! वेरिये तौ घरयो डू न अश्वत है मेरा पूत, जोई परमोचियेतु कान न बरतु है । नीति न अनीति देf शुभ न अशुभ , पलुही मैं होती अनहोती हूं करतु है । गुरु की न साधुको न लोक बेदूहू को शंक, काहू को न माने न तो काहू ने डरतु है । सुन्दर फहत ताहि बीजिये सुकौन भांति, मनकौ सुभाब कछु कह न परतु है । तौ सौ न कपूत कोऊ कलहूं न देवियत, सौ सौ न सपूत कोझ देवियत और है । ही आप भूल सहा नच हूं वे नोच हो, नू हो आए जाने में सकल सिरमौर है।" - आप अFमें तब. भ्रमत जगत वर्ष, तेरे थिर भये सब ठौर ही क ढेर है । तू हो जोवरूप टू हो ब्रह्म है आकाशवत, सुन्दर कहत मन तेरी सब दौर है ।५। जैसे नारों को मेल काटत सिफल करि, सुख में न फेर कोऊ बहे वाक पोत है। जैसें बंद कैन मैं सलाका नलि शुद्ध करे तटल गये हैं तहां ज्य की त्यौंही जोत है ? जैसे वायु बाबर बरि ऊँ उड़ाइ देत, रवि तो प्रकाश मांहि सदाई उदोत है । सुन्दर कहत भ्रम छिन मैं बिस्लाइ जात 'साही के संगतें स्वरूप ज्ञान होत है’ 11६।। के